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महाकवि श्रीकृष्ण सरल का महाकाव्य ‘तुलसी–मानस’ : रामचरित मानस का पुनर्सृजन ही है

डॉ. भगवानस्वरूप शर्मा ‘चैतन्य’

 

' सरल-कीर्ति ' ब्लॉग शृंखला के इस अंक में प्रस्तुत है डॉ. भगवानस्वरूप शर्मा ‘चैतन्य’ का आलेख

डॉ. भगवानस्वरूप शर्मा ‘चैतन्य’ की पुस्तक ‘समीक्षक की डायरी’

ग्वालियर साहित्य संस्थान द्वारा प्रकाशित प्रथम संस्करण-2021 से साभार

शीर्षक : राष्ट्रकवि श्रीकृष्ण सरल का महाकाव्य ‘तुलसी–मानस’

लेखक : डॉ. भगवानस्वरूप शर्मा ‘चैतन्य’, ग्वालियर, मध्यप्रदेश

 
 

कविता, कवि की आत्मा की वीणा के तारों का स्पंदन है। यह सर्जक की साधना का तप और ताप है। रचनाकार के माध्यम से यह अनन्त की ऊर्जा का एक ऐसा अविरल प्रवाह है, जो कभी छन्दों में तो कभी गीतों में, कभी खण्ड काव्यों में तो कभी महाकाव्यों में रचित होकर जीवन के जागरण का शंखनाद बन जाता है। दु:ख इस सृजन की पूँजी है। जिसने जितना अधिक भोगा, वह उतना ही बड़ा कवि है। कवि भवानी प्रसाद मिश्र के शब्दों में –


भीतर की तकलीफ, सृजन की माता है

बड़ा भोगने वाला, बड़ा विधाता है,

इसलिए प्राण मेरे, तुम भोगों, फल निकलेगा

और बड़ी - बड़ी तकलीफों का हल निकलेगा।


इस दृष्टि से महाकवि श्रीकृष्ण सरल एक युगदृष्टा कवि हैं। शायद 20 वीं और 21 वीं, इन दो सदियों के बीच अब तक ऐसी सृजनात्मक शक्ति और एक साथ इतने महाकाव्यों के सृजन का कीर्तिमान स्थापित करनेवाला कोई दूसरा कवि हिन्दी जगत में हमें देखने को नहीं मिलता। धरती पर माँ शारदा की मूक-साधना करनेवाले सहज साधक और महान सर्जकों की यदि फेहरिस्त बनाई जाए तो अपने खून की लाली में कलम डुबोकर भारत की स्वाधीनता की कहानी और देशभक्‍तों की कुर्बानी का इतिहास अपने महाकाव्य के पृष्ठों पर रचनेवाले कवियों में शायद कविवर श्रीकृष्ण सरल ऐसे इकलौते महाकवि हैं जिनकी साहित्य साधना के मूल्यांकन की ओर सुधी आलोचकों का ध्यान नहीं गया। सरलजी के लेखन और संघर्षशील साधना का मूल्यांकन करते हुए महान क्रान्तिकारी पं. परमाननंद ने कहा था


श्रीकृष्ण सरल जीवित शहीद हैं, उनकी साधना तपस्या कोटि की है। क्रान्तिकारी लेखन के लिए उनके जीवन का हर पल तिल-तिलकर उन्हें शहादत की ओर ले जा रहा है।


इसी प्रकार न्यायमूर्ति पं. मुरारीलाल तिवारी ने सरलजी के बारे में एक बार कहा था –


“श्रीकृष्ण सरल ने अपना साहित्य सामान्य स्याही से नहीं, अपने कलेजे के खून से लिखा है। शहीद कुल में जन्मे कविवर श्रीकृष्ण सरल ने इतने महाकाव्य रचकर शहीदों का जो तर्पण किया है, उसकी मिसाल मिलना मुश्किल है। इनके प्रति किसी कवि की ये पंक्तियाँ कितनी सटीक हैं –


अमृत की प्राण रक्षा के लिए विषपान होता है

अमर जो देश को कर दे, मरण वरदान होता है,

शहीदों के लहू से चित्र बनता आज है कल का

किसी भी सृष्टि से पहले, प्रलय का गान होता है।


बहुत कम लोग जानते हैं कि आधुनिक महाभारत के रूप में क्रान्तिकारियों का विश्वकोश कहा जानेवाला बेजोड़ महाकाव्य 'क्रान्ति-गंगा' लिखने वाले महाकवि श्रीकृष्ण सरल के व्यक्तित्व में महर्षि वेदव्यास और गोस्वामी तुलसीदास, दोनों के व्यक्तित्व का प्रतिबिम्ब हमें एक साथ दिखाई देता है। इस दृष्टि से उनका तुलसी के जीवन और रामकथा पर केन्द्रित महाकाव्य 'तुलसी–मानस' को आधुनिक युग की रामायण भी कह सकते हैं।


1 जनवरी 1919 को अशोकनगर में जन्मे सरलजी ने जीवन भर अध्यापन के पावन कार्य को अपनाकर अपने जीवन का प्रत्येक क्षण राष्ट्रोत्थान, सामाजिक चिंतन और साहित्य सृजन के लिए अर्पित किया। इसी कारण उन्हें भारत-गौरव, राष्ट्रकवि, राष्ट्र-रत्न और मालव-रत्न आदि अलंकरणों से सम्मानित कर देश की जनता ने प्यार दिया।


भारत की स्वाधीनता के पुजारियों और बलिदानियों पर लिखे गए 10 महाकाव्यों के बाद रचित 'तुलसी–मानस' सरलजी का 11 वाँ महाकाव्य है। यह अन्य महाकाव्यों से सर्वथा भिन्‍न है। इसमें देशभक्तों की बलिदान-गाथा की पृष्ठभूमि के स्थान पर विशुद्ध भक्ति धारा के महाकवि तुलसी की जीवन गाथा पाई गई है। तुलसी के तमाम अनुद्घाटित जीवन प्रसंगों, व्यक्तित्व एवं सृजन की रसमयी अभिव्यक्ति के साथ-साथ रामचरित मानस की तटस्थ भाव से की गई काव्यमयी समीक्षा भी इस महाकाव्य की विशेषता है। यह सरलजी के जीवन और सृजन का एक नया आयाम है, जिसके विषय में हिन्दी संसार अभी तक अनभिज्ञ है। 612 पृष्ठीय यह महाकाव्य सन्‌ 1995 में प्रकाशित हुआ और 24-12-1997 को विक्रम विश्वविद्यालय के सभागार में आयोजित तुलसी-मानस समारोह में सरलजी के पावन करकमलों से मुझे सप्रेम भेंट के रूप में प्राप्त हुआ। तब मैं म.प्र. शासन के संस्कृति विभाग में म.प्र. तुलसी अकादमी (भोपाल) का सचिव तथा म.प्र. तुलसी शोध संस्थान चित्रकूट का निदेशक था। गद्य और पद्य में लगभग 109 कृतियों (अब 125) के सफल प्रणयन के पश्चात सरलजी की परिपक्व एवं अनुभवसम्पन्न तेजस्वी लेखनी के वरदान स्वरूप इस ग्रंथ का जन्म हुआ।


देशभक्तों पर अनेक महाकाव्यों के सृजनोपरांत 'तुलसी–मानस' महाकाव्य, सरलजी के जीवन की उपलब्धियों के मुकुट में मानो एक मोरपंख है। रामचरित मानस के सम्बन्ध में वे लिखते हैं –


मानस दर्पण है नहीं मात्र निज युग का

वह है भविष्य का भी अति उत्तम लेखा,

लिख दिया तभी, कैसा युग आने वाला

लिख दिया सभी जो आत्म ज्ञान से देखा।


(तुलसी मानस/साहित्यिक अवदान/मानस-मंथन काण्ड/पृ.572)


साहित्य उसे यदि मन्दिर की संज्ञा दे

तो मानस उस मंदिर का स्वर्ण कलश है,

इस स्वर्ण कलश के शिल्पी कविवर तुलसी

जब तक मंदिर है, तब तक उनका यश है।

(वही)


यह ग्रंथ भारतीय पुनर्जागरण के शलाका पुरुष कविकुल शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास पर केन्द्रित होने के साथ-साथ हमारी भारतीय संस्कृति का यशोगान भी है। भारतीय समाज एवं राष्ट्र पर तुलसी का इतना ऋण है कि उसे चुकाने के लिए इस दिशा में किए गए ऐसे रचनात्मक प्रयासों का हिन्दी संसार ने सदा ही स्वागत किया है। उपन्यास के रूप में महान कृतिकार अमृतलाल नागर के 'मानस का हंस' को जो ख्याति एवं लोकप्रियता मिली, वैसी और उससे भी अधिक लोकप्रियता एवं स्नेह पाने का अधिकारी होने के बावजूद सरलजी का यह ग्रंथ केवल 'महाकाव्य' के रूप में रचित होने के कारण जनमानस के उस प्रतिसाद से वंचित रहा जिसका वह सचमुच हकदार था। प्रचार के प्रति उदासीनता का भाव तथा सुधी एवं नामवर समीक्षकों की कृपादृष्टि के अभाव में इस कृति को उतना समादर और यश नहीं मिला जो अपेक्षित व देय था। गीताप्रेस गोरखपुर के रामचरित मानस की जीवनी को आधार बनाकर लिखे गए इस महाकाव्य में सरलजी ने दो-एक घटनाएँ नई भी जोड़ी हैं, जो कि इतिहास सम्मत हैं। रामकथा में भी यहाँ दो-एक प्रसंग नए जोड़े गए हैं, जो कि कवि की अपनी मौलिक उद्भावना पर आधारित नितांत नूतन सृष्टि-दृष्टि है –

संपन्न बहुत तुलसी बाबा भावों में

भावों से रहती झोली भरी–भरी है,

जैसा चाहें, वैसा निकाल कर दे दें,

खाली न कभी होती मन की गगरी है।


(मानस को भावभूमि/मानस मंथन काण्ड/तुलसी मानस/पृ.596)


तुलसी का मानस रस से भरा कलश है

वह कलश लबालब रस से भरा हुआ है,

जिस–जिसने भी, उस रस का पान किया है

रूखा – सूखा मन उसका हरा हुआ है।


(मानस का रस विधान/मानस मंथन काण्ड/तुलसी मानस पृ.600)


महाकाव्य लेखन से पूर्व कवि–श्रेष्ठ गोस्वामी तुलसीदास से प्रार्थना करते हुए सरलजी लिखते हैं –


कवि-कुल-चूड़ामणि ! काव्य-गगन के मार्तंड !

कवि-कौशल का छोटा-सा कण मुझको दे दो,

जो जिया सार्थक जीवन तुमने इस जग में

उस जीवन का छोटा-सा क्षण मुझको दे दो।


यह महाकाव्य सात सर्गों में विभक्त है। इन सर्गों को तुलसी के मानस की ही भाँति, काण्ड नाम दिया गया है। तुलसीदासजी के जन्म और बचपन की घटनाओं पर केन्द्रित प्रथम सर्ग का नाम बालकाण्ड है। द्वितीय सर्ग अयोध्या-काण्ड में तुलसी के जीवन का वह भाग रचित है जो उन्होंने अयोध्या में बिताया। स्वामी नरहरिदास के अयोध्या आश्रम में तुलसी के मानस का जो काव्यसंस्कार हुआ, उन्हें 'रामबोला' से 'तुलसीदास' एक नया नाम दिया गया, दीक्षा दी गई, शिक्षा दी गई और फिर देशाटन और यात्राओं के अवसर प्रदान कर सूकर क्षेत्र में सम्पूर्ण रामकथा का अमृतपान कराया गया, ये सारे प्रसंग इस काण्ड में वर्णित हैं। तीसरे सर्ग 'काशी काण्ड' में तुलसी के महान मनीषियों से सत्संग और प्रकांड पंडित अपने नए गुरु शेष सनातनजी के चरणों में बैठकर उच्च शिक्षा प्राप्त करने, वेद वेदांग एवं पुराणों का गहन अध्ययन-मंथन कर एक संस्कृत मनीषी के रूप में प्रतिष्ठा पाने की कथा है।


उच्च शिक्षा पाने के बाद उनकी गृहस्थाश्रम में प्रवेश की इच्छा तथा गुरु आज्ञा लेकर अपने जन्म स्थान राजापुर की यात्रा का वृत्तांत भी इसी सर्ग में वर्णित है। रत्नावली के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए तुलसी कहते है –


आभार प्रदर्शन बहुत संकुचित रत्ना

जो श्रेय तुम्हें, वह बहुत, बहुत आभारी,

तुमने ही पहुँचाया है मुझे यहाँ तक

है चिर प्रणम्य सचमुच साधना तुम्हारी।

(पृष्ठ 521)


अपनी प्रेरणा, रत्ना के प्रति अपराध बोध से पीड़ित तुलसी लिखते हैं –


मैं गया, न पीछे मुड़कर तुमको देखा

क्या बीत रही तुम पर यह कभी न जाना,

मैं निष्ठुर हूँ, मैं अपराधी हूँ रत्ना

सच्चे अर्थों में आज तुम्हें पहचाना।


लोगों को केवल तुलसी दिख पाएगा

जो कुछ मैं हूँ, उस सब के पीछे तुम हो,

तुम हो मेरे माथे के चन्दन में भी

तुम पूजा की रोली हो, तुम कुंकुम हो।


(चिरविदा/तुलसी मानस/पृ.521)


'राजापुर काण्ड' नामक चौथे सर्ग में तुलसी के राजापुर वास, माता-पिता के श्राद्ध करने, ग्रामवासियों को प्रवचन और कथा कथन शैली में राम की कथा (जो उन्होंने गुरु नरहरिदासजी से सुनी थी)सुनाने के प्रसंग के साथ-साथ उनके भारद्वाज गोत्रीय विदुषी कन्या 'रत्नावली' के साथ विवाह, फिर नवविवाहिता धर्मपत्नी के प्रति घोर आसक्ति का भाव, तुलसी को रत्नावली की फटकार, तुलसी की विरक्ति और संन्यास और उसके पश्चात्‌ उनके भारत के विभिन्‍न तीर्थस्थलों में भ्रमण आदि के प्रसंग यहाँ वर्णित हैं। 5 वें सर्ग 'मानस काण्ड' में तुलसी द्वारा रामचरित मानस 'महाकाव्य' के सृजन की कथा है।


राम जन्मभूमि अयोध्या में 'रामचरित मानस' का लेखन पूर्ण हुआ था। आरंभ में तुलसी के हृदय में मानस के सृजन का जो स्फुरण काशी में हुआ था, उसकी भाषा संस्कृत थी। इस भाषा में जब उन्हें सृजनात्मक संतोष नहीं हुआ तब उन्होंने स्वप्न में आए भगवान शिव की प्रेरणा से अयोध्या आकर इस महाकाव्य को लोकभाषा अवधी में सफलतापूर्वक पूर्ण किया। पूरे दो वर्ष, सात माह और 26 दिन में तुलसी बाबा का यह रामचरित मानस संपूर्ण हुआ। सरलजी लिखते हैं –


हे राम - कथा के राजहंस तुलसी बाबा !

सच पूछो तो तुमने ही हमको राम दिया,

वह राम, रम गया जो भारत के जीवन में

वह राम दिया, उसका प्रिय पावन नाम दिया।


छठवें सर्ग 'उत्तर काण्ड' में तुलसी रचित मानस के बाद संस्कृत के आचार्यों द्वारा उनके विरुद्ध चलाए गए निंदा अभियान, हिन्दी तथा जनभाषा में रचित महाकाव्य देने के कारण उसके महाकाव्यत्व पर लगाए गए प्रश्न चिह्न, विरोध एवं उपहास, स्थान-स्थान पर उपेक्षा और तिरस्कार का वर्णन मिलता है। इसी सर्ग में यह वर्णन भी है कि शहंशाह अकबर ने महाकवि तुलसी को मनसबदारी देकर अपना दरबारी कवि नियुक्त करने का प्रयत्न भी किया था, जिसे तुलसी ने यह प्रसिद्ध दोहा लिखकर खारिज कर दिया था –


हम चाकर रघुबीर के, पटो लिखो दरबार,

तुलसी अब का होएँगे, नर के मनसबदार।


इसी सर्ग में तुलसी बाबा की अकबर के राजकवि रहीम से अभिन्‍न मित्रता और दोहों के जरिए पत्र-व्यवहार एवं संवाद का प्रसंग भी वर्णित है। मीराबाई तुलसी की समकालीन कवयित्री हैं। इसी सर्ग में वर्णन है कि जब मीरा के ससुरालवालों ने उनकी कृष्ण भक्ति एवं पदों के सृजन पर प्रतिबंध लगाने का प्रयास किया तो उन्होंने तुलसी से ही पत्र लिखकर निर्देश माँगा था कि ऐसी परिस्थिति में उन्हें क्या करना चाहिए।


तब गोस्वामीजी ने यह निर्देश दिया था –

जाके प्रिय न राम वैदेही

तजिए ताहि कोटि बैरी सम,

यद्यपि परम सनेही ।


कहते हैं इसी संकेत पर मीरा ने राज परिवार को तिलांजलि देकर साधु-संतों का सत्संग करने का बीड़ा उठाया। 7 वाँ सर्ग, ‘मानस मंथन काण्ड’ है, जिसमें सरलजी ने तुलसी के मानस का विश्लेषण किया है। मुहावरों, लोकोक्तियों और काव्य शक्तियों के जरिए पद्य रचना द्वारा की गई तुलसी के मानस की यह काव्यमयी समीक्षा नितांत नूतन और सर्वथा निजी एवं कवि की मौलिक दृष्टि है। एक अनछुआ और प्रयोगधर्मी आयाम है, जिसमें रामकथा की रोचकता पर बिना आँच लाए रामचरित मानस की जीवंत समीक्षा प्रस्तुत की गई है। माँ सीता त्रिजटा से विदा ले रही हैं। उद्धरण देखें –


माँ ! जाती हूँ, तुम साथ रहोगी मन में

जब दुःख आएँगे, याद तुम्हीं आओगी,

बस यही खेद होगा, माथा सहलाकर,

ले अंक, न तुम मुझको समझा पाओगी।


क्या कहती त्रिजटा, गला रुँध रहा उसका

भाषा पर वैसा भी अधिकार नहीं था,

डर था, भावों से जो भर रहा लबालब

वाणी द्वारा मन का संचार नहीं था।


(सजल विदाई/तुलसी मानस/पृ.423)


महाकाव्य ‘तुलसी मानस’ अपने नाम को सार्थक करता है क्योंकि इसमें न केवल तुलसी जीवंत हो उठे हैं बल्कि यह सच्चे अर्थों में महाकवि श्रीकृष्ण सरल द्वारा अपनी भाषा और शैली में रामचरित मानस का पुनर्सृजन भी है। इस पुनर्सृजन में मानस के भीतर एक और मानस रचा गया है, जिसमें रामकथा का संक्षिप्त, सुन्दर, सर्वांग स्वरूप नए क्षितिज के साथ उभरा है। रामकथा से अनभिज्ञजनों के लिए या फिर जो राम और मानस को पूर्णतः पूजते हैं, पढ़ते नहीं हैं, उनके लिए तुलसी मानस उपहार भी है। मानस–महिमा प्रतिपादित करते हुए सरलजी लिखते हैं –


है राम-चरित-मानस वह महा-ग्रंथ जिसने

दुनिया के देशों में भी आदर पाया है,

देती प्रकाश हैं हमें राम की लीलाएँ

जो भूले-भटके, उनको मार्ग सुझाया है।


मानस की कथावस्तु से संबंधित यहाँ कविवर सरलजी की कुछ नूतन उद्भावनाएँ हैं जो स्वाभाविक रूप से मूलकथा में जुड़कर ग्रंथ की पूर्णता में सहायक सिद्ध हुई हैं। गोस्वामीजी ने विषयांतर भय या समयाभाव के कारण जो प्रसंग छोड़ दिए थे, जैसे लंका से चलते समय सीताजी का त्रिजटा राक्षसी और अशोक वृक्ष से विदा लेना और अयोध्या पहुँचने पर 'मिलन पर्व' के अंतर्गत श्रीराम द्वारा अपने मित्रों का अयोध्यापुरी में नागरिकों से परिचय कराना आदि प्रसंगों को अपने महाकाव्य में स्थान देकर सरलजी ने इस लिहाज से बिल्कुल नई जमीन तोड़ी है –

है मातृभूमि से कोई बड़ा न होता

उसकी माटी होती हमको चंदन है,

है मातृभूमि की महिमा सबसे न्यारी

हर साँस–साँस करती उसका वंदन है।


(तुलसी मानस/मातृभूमि महिमा/पृ.583)


महाकवि तुलसी और उनके रामचरित मानस, दोनों को एक नई ताजगी और जीवंतता प्रदान करने वाले महाकवि श्रीकृष्ण सरल रचित इस महाकाव्य को पढ़कर कोई भी पाठक जो तुलसी साहित्य का तनिक भी मर्म समझता है, कविवर सरलजी का भक्त बने बिना नहीं रह सकता। 2 सितंबर 2000 को श्रद्धेय श्रीकृष्ण सरल ने अपनी जीवन–यात्रा को विराम देखते हुए भगवान महाकाल के श्रीचरणों में स्थायी शरण प्राप्त की। अब सरलजी की स्मृतियाँ और उनके 15 महाकाव्यों सहित सभी 125 कृतियाँ हमारे देश की साहित्यिक विरासत हैं।


यह उल्लेख करते हुए मुझे हर्ष हो रहा है कि सरलजी के सुपुत्र डॉ. धर्मेन्द्र सरल शर्मा अपनी पुत्री सुश्री अपूर्वा सरल (लंदन) एवं पुत्र इंजी. अभिषेक सरल के साथ विरासत में प्राप्त सरलजी की धरोहर को नई पीढ़ी तक पहुँचाने के लिए सतत रूप से प्रयत्नशील हैं। आपके द्वारा ‘राष्ट्रकवि श्रीकृष्ण सरल साहित्य समिति’ का गठन करते हुए कुछ प्रकल्पों को मूर्तरूप दिया गया है जिसके अंतर्गत भारतीय क्रान्ति-साहित्य को समर्पित स्वनिर्मित वेबसाइट www.shrikrishnasaral.com का संचालन, जुलाई-2022 में सरलजी को फ्रांस की पार्लियामेंट में मरणोपरांत ‘साहित्य-गौरव’ सम्मान, सितंबर-2022 में यू.के. की पार्लियामेंट में ‘वर्ल्ड बुक ऑफ रिकॉर्ड’ सम्मान, जनवरी-2023 में अमेरिका के स्टैनफर्ड रेडियो स्टेशन से सरलजी पर केन्द्रित डेढ़ घंटे की वार्ता का वैश्विक प्रसारण तथा मध्यप्रदेश लोक सेवा आयोग/ विश्वविद्यालयीन पाठ्यक्रमों में सत्र 2023-24 से सरलजी कि रचनाओं को स्थान दिया जाना प्रमुख उपलब्धियाँ हैं।


अपनी 7 दशकों की सतत साहित्य साधना में 8 बार हृदयाघात तथा एक बार पक्षाघात की पीड़ा हो जाने के बावजूद राष्ट्रकवि श्रीकृष्ण सरल ने हिन्दी साहित्य जगत को जो यह अनमोल 'तुलसी मानस' रूपी अमृत कलश प्रदान किया, उसके लिए समूचा विश्व उनका सदा ऋणी रहेगा।


नये युग के इस तुलसी को हमारा शत्‌ – शत्‌ नमन !

 

डॉ. भगवानस्वरूप चैतन्य

प्रधान संपादक लोकमंगल पत्रिका (त्रैमासिक), ग्वालियर

पूर्व सचिव, म.प्र. संस्कृत अकादमी व म.प्र. तुलसी अकादमी, मप्र शासन संस्कृति विभाग

एमएस.सी., पीएच.डी., एम.ए. पीएच.डी. (हिन्दीसाहित्य), हिन्दी पत्रकारिता

प्रकाशन : धमनियों के देश में (काव्य संग्रह) अहसास की परछाइयाँ (गज़ल संग्रह)

गीतराग (खण्डकाव्य), व्यंग्य धारा, क्या बोलूँ क्या बात करू (व्यंग्य निबंध)

सम्मान : म.प्र. साहित्य अकादमी द्वारा राष्ट्रीय मुक्तिबोध कविता पुरस्कार, पकिल पुरस्कार

लेखक ई-परिचय - https://www.shrikrishnasaral.com/profile/bs-chaitanya/profile

 

विशेष सूचना –

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