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विशिष्ट सम्मतियाँ
"आनेवाले समय में राजनीतिज्ञों को तो लोग भूल जाएंगे, किन्तु भारतवर्ष के इतिहास में एवं हिन्दी साहित्य के इतिहास में कविवर श्रीकृष्ण सरल को सदा आदर सहित 'राष्ट्रकवि' के रूप में याद किया जाएगा।"
- पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेई, 07.02.1988, चिरमिरी सरगुजा तत्कालीन म.प्र.
"इस महाकाव्य को जब मैं अपनी गोद में रखती हूं, तो मुझे ऐसा लगता है जैसे मेरा भगत मेरी गोद में आकर बैठ गया है और जब मैं इसे पढ़ती हूं, तो मुझे ऐसा लगता है जैसे मेरा बेटा भगत मुझसे बातें कर रहा है।"
- भगत सिंह की माताजी पूजनीया विद्यावती देवी द्वारा भगत सिंह महाकाव्य लोकार्पण, 09.03.1965 उज्जैन
"सरलजी ने इतनी ऊंचाइयां प्राप्त कर ली हैं कि अब कोई भी अलंकरण उनके लिए छोटा पड़ेगा।"
- पूर्व महामहिम राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह, 12.03.1992, नई दिल्ली
"जिस कर्तव्य का निर्वाह कवि भूषण ने शिवाजी के प्रति किया था, उसी का निर्वाह सरल जी ने शहीदों और क्रांतिकारियों के प्रति किया है।"
- कर्नल गुरुबख़्शसिंह ढिल्लन, आज़ाद हिन्द फ़ौज
"सरलजी जीवित शहीद हैं। उनकी साहित्य-साधना तपस्या कोटि की है।"
- महान् क्रान्तिकारी पं. परमानंद
"भारतवर्ष में शहीदों का समुचित श्राध्द यदि किसी ने किया है, तो वह केवल सरलजी ने ही किया है।"
- ख्यात साहित्यकार और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पं. बनारसीदास चतुर्वेदी
“सरल जी से हम लोगों के संबंध बहुत पुराने हैं। भूमिगत क्रांतिकारियों को उन्होंने स्वयं को संकट में डालकर बहुत सहयोग दिया था। सरल जी के माध्यम से छिपे हुए क्रांतिकारियों का पारस्परिक संपर्क भी बना रहता था। एक तरह से वे हमारे खुफिया विभाग के सदस्य रहे हैं।“
- काकोरी केस के महान क्रांतिकारी एवं प्रसिद्ध लेखक मन्मथनाथ गुप्त, 1990, दिल्ली
“सरलजी! आप देश के साथ मध्यप्रदेश के गौरव हैं, यह बात तो मेरे लिए प्रसन्नता की है ही, किंतु आप ग्वालियर स्टेट के रहनेवाले हैं, यह विशेष गर्व का विषय है। निस्संदेह आप मेरे लिए पुत्रवत हैं, लेकिन शहीदों की स्मृति को प्रतिष्ठापित करने के लिए आपने जो तपस्या और साधना की है, मैं उसे प्रणाम कर रही हूँ”
- श्रीमती विजयाराजे सिंधिया, 12 मार्च 1991, फिक्की ऑडिटोरियम, नई दिल्ली
"स्व. सरलजी के लिए मैं अपने हृदय में उच्च आदर का भाव रखता हूं। इस प्रकार के कवि पृथ्वी पर कभी-कभी ही जन्म लेते हैं।"
- आर. सी. लाहोटी, पूर्व मुख्य न्यायाधीश, माननीय उच्चतम न्यायालय, 2019, नई दिल्ली
विभिन्न संस्थाओं तथा साहित्य प्रेमियों द्वारा समय-समय पर श्रीकृष्ण सरल को प्रदत्त अलंकरणों में भारत गौरव, जीवित शहीद, श्रेष्ठ कला आचार्य, अभिनव भूषण, क्रांति कवि, मानस रत्न, सनाढ्य कुलभूषण, मालव रत्न, अमर शहीदों का चारण, क्रांति रत्न प्रमुख हैं।
विगत छः दशकों से सरलजी के प्रेरक राष्ट्रीय साहित्य को भारतवर्ष के विभिन्न विश्वविद्यालयों, सी बी एस ई तथा प्रादेशिक माध्य. शिक्षा मंडलों द्वारा पाठ्यक्रमों में समुचित स्थान दिया जाता रहा है।
श्रीकृष्ण सरल का वंश स्वातंत्र्य समर के सेनानियों और शहीदों का वंश है। सरलजी के यशस्वी पूर्वज उत्तरी मध्यप्रदेश के ग्राम गणेशखेड़ा के सुसंस्कृत ब्राह्मण परिवार से जागीरदार थे। पास ही ईसागढ़ राज्य था जिसको औन्दीला और युद्ध विजय के बाद बहादुरगढ़ नाम से भी जाना जाता था। सन् 1811 में अंग्रेज़ जनरल नील फ़िलोसे ने बहादुरगढ़ पर आक्रमण किया, जिसमें सरलजी के पूर्वजों ने खीची राजपूत राजा दुर्जनशाल के नेतृत्व में अंग्रेज़ों से युद्ध किया और वीरगति प्राप्त की। युद्ध के दौरान जनरल फ़िलोसे ने जब सरलजी के परिवार की महिलाओं से सैनिकों के लिए रसद और घोड़ों के लिए चारा माँगा, तब उन वीरांगनाओं के रसद न देने पर उसने आग-बबूला होकर उन महिलाओं और बच्चों को तलवारों से कटवा डाला। बर्बरतावश वह इस बाग़ी परिवार को समूल नष्ट करना चाह रहा था। तब परिवार की ही एक गर्भवती महिला ने सूझबूझ से जान बचाई। उस शिशु के जन्म से सरलजी के वंश की वृद्धि हुई।
1 जनवरी 1919 को सनाढ्य कुल में जन्मे श्रीकृष्ण सरल बालपन से ही देव, देश और धर्म के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील रहे। सन् 1929 में महान क्रांतिकारी राजगुरु को पूना से लाहौर ले जाते समय ’वंदे मातरम्’ नारा लगने पर अंग्रेज सार्जेंट द्वारा उनका चेहरा अपमानपूर्वक ट्रेन की खिड़की के अन्दर ठेलने पर बालक सरल द्वारा अंग्रेज सार्जेंट को पत्थर मार कर लहूलुहान कर दिया गया। पकड़े जाने पर अंग्रेज सिपाहियों द्वारा जूतों की ठोकरों से बालक सरल को निर्दयतापूर्वक मारा गया। उनके बाएं पैर पर आजीवन वह निशान बना रहा।
सन् 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान अंग्रेजों के प्रति अपने मुखर विरोध के कारण युवा सरलजी और उनके मित्र को एक माह तक फतहगढ़, जिला गुना, मध्यप्रदेश स्थित कारागार में बंद रहना पड़ा था।
भूमिगत क्रांतिकारी डॉ. बालकृष्ण विश्वनाथ केसकर (पूर्व केंद्रीय मंत्री) को खुफिया पुलिस की आँखों से बचाकर सरलजी ने एक माह तक गुना में गोपनीय प्रश्रय दिया था। भगत सिंह-आज़ाद दल के लाहौर षड्यंत्र केस के फरार क्रांतिकारी छैलबिहारी को उन्होंने गुना में अपने बाड़े में लंबे समय तक गोपनीय रूप से ठहराया था।
बाल्यावस्था में काव्य लेखन प्रारंभ कर किशोरावस्था से श्रीकृष्ण सरल ने अन्य साहित्यिक विधाओं में अपने लेखन से सभी को आकर्षित किया था। उनकी निर्भीक शैली एवं सारगर्भित रचनाओं में विलक्षण सरलता के भाव देख कर उनके विद्वान गुरु श्री भानुप्रकाश सिंह ने उन्हें ‘सरल’ उपनाम से विभूषित किया था। श्रीकृष्ण सरल ने न सिर्फ अपने लेखन में, वरन संपूर्ण जीवन में अपने आदर्श गुरु द्वारा प्रदत्त उपनाम ‘सरल’ को चरितार्थ किया।
भारत-रत्न से सम्मानित राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन ने सरलजी की महाकाव्य लेखन की प्रतिभा को पहचानकर उनसे शहीद भगत सिंह पर महाकाव्य लिखने का आग्रह किया। सरलजी ने इसे स्वीकार कर सन् 1965 में भगत सिंह महाकाव्य की रचना की। देश में भगत सिंह पर लिखा गया किसी भी भाषा में यह पहला महाकाव्य था।
श्रीकृष्ण सरल का वैशिष्ट्य साहित्य की विभिन्न विधाओं में रहा है जिनमे महाकाव्य, प्रबंध काव्य, भिन्न तुकांत काव्य, खण्ड काव्य, काव्य सूक्तियां, दोहे, देशभक्ति पूर्ण ग़ज़लें उल्लेखनीय हैं। उन्होंने सतत् रूप से उपन्यास, कथा साहित्य, नाटक, जीवनी, बाल साहित्य, हास्य व्यंग्य जैसी विधाओं में भी व्यापक लेखन किया है।
प्रामाणिक लेखन के लिए तथ्य संकलन हेतु सरलजी हज़ारों क्रांतिकारियों, आज़ाद हिन्द फ़ौज के सैनिकों, उनके परिजनों, गुरुजनों और इष्ट-मित्रों से भेंट किया करते थे। इस तथ्यात्मक लेखन के उद्देश्य से सन् 1970 में दक्षिण-पूर्व एशिया के बारह देशों की यात्रा, एक साधारण शिक्षक होते हुए भी, सरलजी ने निजी व्यय से सम्पन्न की थी। शहीदों का ऋण उतारने के लिए अपने जीवन में सरलजी ने 20 लाख कि.मी. की यात्राएँ तय कीं।
सन् 1998 में श्रीकृष्ण सरल द्वारा रचित ‘क्रांतिकारी-कोश’ भारतीय क्रांतिकारियों के विषय में विश्व में सर्वाधिक लोकप्रिय एवं प्रामाणिक गद्य-ग्रंथ के रूप में मान्य है। सरलजी ने बलिपंथियों के बलिदान को संस्थापित करने के उद्देश्य से इस पुस्तक में सन् 1757 के प्लासी युद्ध से सन् 1961 गोवा मुक्ति पर्यंत लगभग 2000 क्रांतिकारियों को 1550 पृष्ठों में प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से सम्मिलित किया है। क्रांतिकारियों के इनसाइक्लोपीडिया रूप में विख्यात इस पुस्तक के पांचों खंड हिंदी व अंग्रेजी भाषा में उपलब्ध हैं। भविष्य में भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन के विषय पर कोई भी लेखन श्रीकृष्ण सरल द्वारा रचित इस प्रामाणिक संदर्भ ग्रंथ के बिना अधूरा ही रहेगा।
सरलजी के हस्तलिखित फ़ुलस्केप पृष्ठों की संख्या सवा लाख से अधिक है। उन्होंने पांच हज़ार से अधिक काव्य सूक्तियों की रचना की। उनका सबसे वृहद् महाकाव्य 'क्रांतिगंगा' है। यह पत्रिका के आकार में है, सचित्र है और इसकी पृष्ठ संख्या 1052 है। इस महाकाव्य में पंद्रह हज़ार चतुष्पदियां हैं।
भगत सिंह एवं चन्द्रशेखर आजाद पर लिखे अपने महाकाव्यों को बेचने के लिए सरलजी ने घोर संघर्ष किया। प्रकाशकों के लाभ का विषय न होने के कारण सरलजी को अपने घर और बच्चों की जरूरतों का सामान और धर्मपत्नी के गहने बेचकर अपनी कृतियाँ छपवानी पड़ीं। वे आजीवन गले-गले तक क़र्ज़ और ब्याज़ में डूबे रहे। अवैतनिक अवकाश लेने से आय के साधन भी बंद हो गये थे। यहाँ तक कि उन्होंने निःसंकोच होकर भीषण गर्मी में भी महीनों तक उदयपुर की सड़कों पर हाथठेले पर देशभक्ति से ओतप्रोत पुस्तकें बेचीं।
सरलजी ने विद्यार्थियों व युवाओं में राष्ट्रभक्ति की चेतना जागृत करने के प्रयोजन से क्रांतिकारियों व शहीदों पर अनगिनत वक्तव्य दिए। उन्होंने अपनी पुस्तकों की पांच लाख प्रतियाँ औने-पौने दामों में बेच कर देश-सेवा के रूप में अर्पित की हैं। श्रीकृष्ण सरल के प्रामाणिक राष्ट्रनिर्माण साहित्य पर विभिन्न प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों द्वारा 15 से अधिक शोधार्थियों को डॉक्टरेट और सरलजी के विद्यार्थी रहे अनेक शिक्षकों को राष्ट्रपति पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि सरलजी की 125 प्रेरक पुस्तकों में से एक भी कृति शासन द्वारा किसी भी योजना के अंतर्गत नहीं ख़रीदी गई है।
यह दुर्भाग्यपूर्ण है की भारत की विशिष्ट विभूतियों द्वारा सराही गयी श्रीकृष्ण सरल की रचनात्मक लेखन साधना तथा उनके द्वारा देश में अनुपम साहित्यिक योगदान देने पर भी किसी भी शासन द्वारा उन्हें पुरस्कृत नहीं किया गया। यह एक विडंबना ही है कि स्वाधीनता के अमृत महोत्सव, श्रीकृष्ण सरल की जन्म शताब्दी और उनकी 21 वीं पुण्यतिथि (2 सितंबर 2021) तक भी सरलजी और उनके विपुल राष्ट्रवादी सरल-साहित्य का मूल्यांकन नहीं हो पाया है।
कविर्मनीषी श्रीकृष्ण सरल ने आजीवन जो लाभ अर्जित किया वह है–
लोकमानस की शुभकामनाएं व आशीर्वाद !