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क्रान्तिकारी लेखन करनेवाले प्रोफेसर श्रीकृष्ण सरल के साहित्य में सर्वत्र देश की मिट्टी बोलती है

अपडेट करने की तारीख: 29 अग॰ 2023

- डॉ. प्रेम भारती

 

' सरल-कीर्ति ' ब्लॉग शृंखला के इस अंक में प्रस्तुत है

डॉ. प्रेम भारती की पुस्तकमध्यप्रदेश के साहित्यकार

म.प्र. साहित्य अकादमी, संस्कृति विभाग म.प्र. शासन, भोपाल

द्वारा प्रकाशित, प्रथम संस्करण-2022, पृष्ठ 91-98 से साभार

शीर्षक : श्रीकृष्ण सरल | लेखक : डॉ. प्रेम भारती | प्रधान संपादक : डॉ. विकास दवे

 

www.shrikrishnasaral.com/blog

 

" क्रान्तिकारी लेखन के विश्व-कीर्तिमान स्थापित करनेवाले प्रोफेसर

श्रीकृष्ण सरल के साहित्य में सर्वत्र देश की मिट्टी बोलती है "


अपने क्रान्तिकारी लेखन के विश्व-कीर्तिमान स्थापित करनेवाले प्रोफेसर श्रीकृष्ण सरल का जन्म 01 जनवरी 1919 को मध्यप्रदेश के अशोकनगर में हुआ था। इनके पिता का नाम पं. भगवती प्रसाद बिरथरे और माता का नाम श्रीमती यमुना देवी था।


श्री सरलजी के मन में क्रान्तिकारियों के प्रति अटूट अनुराग था। बचपन से ही काव्य-लेखन के प्रति उनमें रुचि थी। बाद में यही रुचि उनके लेखन में एक गहन तपस्या के रूप में बदल गई। वे एक निष्ठावान अध्यापक तथा समर्पित रचना-धर्मी थे, उनका कार्य-स्थल उज्जैन रहा। वहीं से वे देश-विदेश में घूमकर इतिहास जैसी प्रामाणिक और शोधपूर्ण सामग्री जुटाकर अपना लेखन करते थे। सात दशकों तक लेखन में रत प्रोफेसर श्रीकृष्ण सरल ने 15 महाकाव्यों सहित कुल 125 पुस्तकों की रचना की।


सरदार भगत सिंह महाकाव्य लिखने के बाद उन्होंने चन्द्रशेखर, सुभाष, अशफाकउल्ला खाँ पर भी लिखा। उन्होंने गद्य की सभी विधाओं में लिखा जिनमें कहानियाँ, उपन्यास, एकांकी, जीवनियाँ और निबंध प्रमुख रहे। क्रान्ति-कथाएँ पुस्तक में उन्होंने लगभग दो हजार क्रान्तिकारियों के जीवन-वृत्त लिखकर एक विश्व प्रतिमान बनाया। सचित्र महाकाव्य क्रान्ति-गंगा हिंदी साहित्य में लिखे गए अब तक के सबसे वृहद महाकाव्यों में से एक है, जिसमें वर्ष 1757 से 1961 तक के भारतीय क्रान्तिकारी आंदोलन को 15,000 से अधिक चतुष्पदियों के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। नेताजी सुभाष पर उन्होंने 18 पुस्तकें लिखीं और स्वयं के व्यय से प्रकाशित कीं। ‘घर फूँक तमाशा देख’ मुहावरे को चरितार्थ करनेवाले श्री सरलजी को अनेक शारीरिक, पारिवारिक, आर्थिक कष्टों को झेलना पड़ा लेकिन दैन्य भाव उनमें नहीं पनपा। 02 सितम्बर 2000 को अवंतिकापुरी उज्जैन में सरलजी ने देह त्याग दी।


प्रमुख रचनाएँ


महाकाव्य/खण्डकाव्य : सरदार भगत सिंह, अजेय सेनानीचंद्रशेखर आजाद, सुभाष चंद्र, जय सुभाष, शहीद अशफाकउल्ला खाँ, विवेक-श्री, स्वराज्य-तिलक, क्रान्ति-ज्वाल (भीकाजी) कामा, बागी करतार (सिंह सराबा), तुलसी-मानस, सरल-रामायण, सरल-सीतायन, महाबली (हनुमान), अद्भुत कवि सम्मेलन, कृष्ण-काव्यम (अपूर्ण), कवि और सैनिक, महारानी अहिल्याबाई, जीवंत-आहुति (नानासाहब पेशवा पुत्री मैना)


उपन्यास : चटगांव का सूर्य, रामप्रसाद बिस्मिल, राजगुरु, यतीन्द्रनाथ दास, क्रान्तिकारी शहीद चंद्रशेखर आज़ाद, जय हिन्द, दूसरा हिमालय


कहानियाँ : देश के प्रहरी, देश के दुलारे, बलिदान–गाथाएँ, हमारे नेताजी, आजाद हिंद फौज के रणबांकुरे, क्रान्तिकारी कोश खण्ड 1–5, इंडियन रिवोल्यूशनरीज़ वॉल्यूम 1–5 (अंग्रेजी)


जीवनियाँ/एकांकी : संसार की महान आत्माएँ, संस्कृति के आलोक स्तंभ, वतन हमारा, राष्ट्रपति सुभाषचन्द्र बोस, नेताजी सुभाष जर्मनी में, सेनाध्यक्ष सुभाष और आजाद–हिंद–संगठन, नेताजी के सपनों का भारत, रानी चेनम्मा, वासुदेव बलवन्त फड़के, बाबा पृथ्वीसिंह आजाद, अल्लूरी सीताराम राजू, नर–नाहर नरगुंदकर, डॉ. चम्पकरमण पिल्लई, क्रांतिकारिणी दुर्गा भाभी, रासबिहारी बोस


निबंध : संसार की प्राचीन सभ्यताएँ, विचार और विचारक, शिक्षाविद सुभाष, जियो तो ऐसे जियो, युवकों से दो–दो बातें, जीवन–रहस्य


काव्य-संग्रह : बच्चों की फुलवारी (बाल साहित्य), मुक्ति–गान, स्नेह–सौरभ, मुझको यह धरती प्यारी है, विवेकाञ्जलि, शहीदों की काव्य–कथाएँ, राष्ट्र–वीणा, शहीद चित्रावली, मौत के आंसू, काव्य–कथानक


काव्य-सूक्तियाँ/गज़लें : अंबेडकर दर्शन, मंत्र–सूक्तियाँ, ईश्वर के आसपास, शहीदी गज़लें, कौमी गज़लें


हास्य/व्यंग्य : हेडमास्टरजी का पायजामा, राष्ट्र की चिंता, क्रान्तिकारी आन्दोलन के मनोरंजक प्रसंग


व्याकरण : हिंदी ज्ञान–प्रभाकर, भाषा और साहित्य आत्म–कथा : मेरी सृजन–यात्रा


साहित्य में स्थान : प्रोफेसर श्रीकृष्ण सरल का सम्पूर्ण काव्य देश-प्रेम की भावना से ओत-प्रोत है। उनके काव्य में राष्ट्रप्रेम और शौर्य भाव एक साथ प्रकट होते हैं। राष्ट्र रक्षा का संदेश युवाओं को देने की उनकी तड़प देखते ही बनती है।


स्वाधीन भारत में राष्ट्रीयता एक बहुवर्णी अर्थ-व्यंजक शब्द बन गया है। शायद ही कोई अन्य शब्द इतना प्रचलित हो जितना आज ‘राष्ट्रीयता’ पर जोर दिया जाता है। राष्ट्रीयता की चर्चा उस समय और भी अधिक होती है, जब किसी बाहरी देश से इस देश के युद्ध की आशंका हो। भीतरी खतरों या आंतरिक विघटन के प्रकट-अप्रकट उत्पाती लक्षण तो जैसे राष्ट्रीयता से कोई सरोकार नहीं रखते।


अब समय आ गया है कि हमें इस बात की चिंता अवश्य करनी होगी कि राष्ट्रीय समस्याओं को हल करने के लिए राष्ट्रीयता का सही-सही उपयोग कैसे हो? अर्थात्‌ राष्ट्रीयता राष्ट्रीय समस्याएँ सुलझाने का साधन कैसे बने? राष्ट्रीयता स्वयं समस्या न बने इस दृष्टि से हमें राष्ट्रीयता पर पुनर्विचार करना होगा। उसके स्वरूप पर विचार करना होगा, जिससे कि समस्याओं का जो गहन अंधकार है, वह क्षीण हो जाए। आचरण और व्यवहार की कसौटी पर खरे उतरने वाले कोई विरले साहित्यकार ही राष्ट्रीयता का सही चिंतन कर सकते हैं। केवल राष्ट्रीयता की परिभाषा करते रहने से बात नहीं बनती। साहित्यकार की बात मैं इसलिए करना चाहता हूँ कि उनका आचरण और व्यवहार विरोधाभासी नहीं होता।


व्यक्तित्व एवं कृतित्व : प्रोफेसर श्रीकृष्ण सरल का नाम आज के कवियों में बड़े आदर के साथ लिया जाता है। मेरी उनसे पहचान पुरानी थी। जब मैं सन्‌ 1960 में भोपाल पी.जी.बी.टी. कॉलेज से एम.एड. कर रहा था, तब वे देवास पी.जी.बी.टी. कॉलेज से एम.एड. कर रहे थे। वहीं मेरी उनसे पहली मुलाकात हुई थी। उनसे बातचीत में मैंने अनुमान लगाया कि वे अमर शहीदों की पूजा के पक्षधर थे। सरलजी का मत था कि जो राष्ट्र शहीदों का समुचित स्मरण नहीं करता, वह राष्ट्र अपनी राष्ट्रीयता से वंचित हो जाता है। इसलिए उन्होंने अमर शहीदों का चारण बनने की गौरवशाली परंपरा निभाने का संकल्प लिया है। चर्चा के मध्य उन्होंने 'मैं अमर शहीदों का चारण' कविता की ये पंक्तियाँ सुनाई -


मैं अमर शहीदों का चारण, उनके यश गाया करता हूँ।

जो कर्ज राष्ट्र ने खाया है, मैं उसे चुकाया करता हूँ ।।


उनकी ये पंक्तियाँ सुनकर मैं भाव-विभोर हो उठा और बाद में जब-जब भी मैं उज्जैन जाता था, उनसे भेंट अवश्य करता था।


कुछ दिनों बाद नाहरगढ़ (मंदसौर) के उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में मैं प्राचार्य पद पर पदस्थ हुआ, तब वे शिक्षा महाविद्यालय, उज्जैन में ही व्याख्याता पद पर कार्यरत थे। मैंने उनसे सहज ही पूछा, “आप प्राचार्य पद पर पदोन्नत होकर क्यों नहीं गए ? ”


उनका सहज उत्तर था, “पदोन्नत होकर मैं प्राचार्य तो बन ही गया था किंतु मैंने सोचा प्राचार्य के पद पर रहकर मैं अपनी रचना-धर्मिता का निर्वाह ठीक से नहीं कर पाऊंगा। यहाँ मैं व्याख्याता हूँ। अवकाश लेकर अन्य विद्यालयों में रचना-पाठ के लिए सहज पहुँच जाता हूँ। मुझे उसमें सुविधा होती है। प्राचार्य पद पर रहकर मैं यह सुविधा नहीं उठा पाता।”


मुझे लगा एक कर्मठ और लगन के धुनी रचनाकार में ही इस प्रकार के संकल्प लेने की शक्ति होती है। लक्ष्य को साधने में किस प्रकार अपने व्यक्तिगत जीवन की बलि देना होती है, यह मुझे तब समझ में आया। सरलजी के परिवार के सदस्यों को भी मैं धन्य मानता हूँ कि उनकी प्रतिभा को उन्होंने किसी भी सीमा तक अवरुद्ध नहीं होने दिया।


प्राय: देखा जाता है कि सामान्यत: कवि की कर्मधारा और आचरण एक प्रकार का होता है और कविता दूसरे प्रकार की। दोनों में जैसे कोई मेल ही नहीं होता। अपने अंतःकरण को ज्यों का त्यों अपने काव्य में उतार देना एक जोखिम भरा काम है। किंतु सरलजी ने आत्मशोधन की इस भीतरी प्रक्रिया को कविता में बिम्बित-प्रतिबिम्बित करने का अद्भुत शौर्य दिखाया। यही कारण है कि उनकी हर कविता में राष्ट्रीयता के स्वर मुखरित हैं।


सोद्देश्य लेखन ( संस्मरण )


बात उन दिनों की है जब मैं बुनियादी प्रशिक्षण महाविद्यालय खरगोन में व्याख्याता पद पर पदस्थ था। सरलजी का महाविद्यालय में काव्य-पाठ हुआ। यह सर्वविदित था कि काव्य-पाठ के पश्चात्‌ वे अपनी पुस्तक को चौथाई कीमत पर छात्रों को उपलब्ध करा देते थे। वहाँ भी उन्होंने वैसा ही किया।


शाम को जिस होटल में वे ठहरे थे, वहाँ उनसे मिलने गया। मेरे मन में जिज्ञासा थी कि उनसे उनकी रचना-धर्मिता तथा पुस्तक-प्रकाशन से जुड़े कुछ सवाल अवश्य करूँ। होटल कक्ष में जहाँ वे ठहरे थे कुछ और साहित्यकार बंधु भी उनसे भेंट करने आए थे। सरलजी उनसे चर्चा में व्यस्त थे। मुझे देखकर वे बड़े प्रसन्न हुए और चर्चा का अपना अबाध क्रम बंद कर मुझसे बात करने लगे। इसके बाद जिस बात से मैं घबराता था, वही सामने आया, मुझे कविता सुनाने का आदेश उन्होंने दिया।


मैं न जाने क्‍यों मंच पर काव्य-पाठ की प्रवृत्ति से वंचित रहा हूँ। अन्य नए-पुराने कवियों की कविताएँ तो मैं सुन लेता हूँ, पर अपनी लिखी सुनाने की बात उठते ही हिचक का शिकार हो जाता हूँ। मुझे इस प्रकार असहज होने का अंदाज लगाकर सरलजी ने कहा “पहले मैं एक कविता सुना देता हूँ फिर आप सुनाना।”


मैंने कहा, सरलजी बात इतनी ही नहीं है। मैं कविता तो आपकी सुनता रहता हूँ। मैं तो यहाँ आपसे कुछ जिज्ञासा भरे प्रश्नों के उत्तर जानने आया हूँ, यदि संभव हो तो मेरा समाधान अवश्य करें।


सरलजी ने सहज मुस्कान बिखेरते हुए कहा, “पूछिए, मेरे जीवन में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसे मैंने गोपनीय रखा हो।”


मैंने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा, “कविता मैं भी लिखता हूँ किंतु उसे प्रकाशित करने का साहस मैं नहीं कर पाता हूँ, आप स्वयं अपने काव्य-संग्रह को कैसे प्रकाशित कर पाते हैं? अन्य प्रकाशकों द्वारा आप अपनी पुस्तकों को क्‍यों नहीं प्रकाशित करवाते हैं ?” यह सुनकर उन्होंने गंभीर मुद्रा में जो कुछ कहा, वह मेरे लिए बड़ा प्रेरणादायी सिद्ध हुआ। उन्होंने बताया,


“मैं अपनी पुस्तकों को स्वयं प्रकाशित करता हूँ। उसके पीछे मेरा मंतव्य है कविता को नैतिक रीतिबद्धता और गतानुगति से बाहर निकाल कर जीवन की तपती, ताजगी और स्फूर्ति की किरणों के बीच में लाना। मैं नहीं मानता कि आज के कवि में उगती मनोदीप्ति, ऊर्जा और आत्मविभोरता की कमी है किंतु वे इसे पैनी धार नहीं देते। उनकी खास रुचि पुस्तकों को प्रकाशित कर ऊँची रायल्टी प्राप्त करने में अधिक है। मैं रायल्टी के लिए नहीं, देश में नवयुग की प्रखर ज्योति और जीवन के प्रकाश में करवट लेती हुई उस तरुणाई के लिए लिखता हूँ जो बलिदान की दीप शिखा और कर्म की गतिमयी व्याकुलता के लिए आत्मसंताप से पीड़ित हैं। मैं उस तरुणाई को शक्तिमान बनाकर परार्थ जीने की बात करता हूँ। इसलिए मुझे प्रकाशक भी नहीं मिलते हैं।”


उन्हें बीच में टोककर मैंने फिर एक प्रतिप्रश्न किया, “इसके लिए आप साधन कैसे जुटा पाते हैं। एक बार आपने चर्चा में बताया था कि एक काव्य-संग्रह की दस हजार प्रतियाँ आप छपवाते हैं। फिर आपने तो अभी तक कई काव्य-संग्रह निकाल लिए हैं, यह सब कैसे संभव हुआ? उसके लिए आर्थिक साधन कैसे जुटा पाए?' इस पर भी थोड़ा प्रकाश डालें।” सरलजी का उत्तर था,


“यह सब मैं कैसे करता हूँ। सुनिए। सबसे पहले मैं यह बताना चाहूँगा कि इसके लिए आर्थिक-साधन कैसे जुटाता हूँ। मैं पत्नी के गहने गिरवी रखकर यह जोख़िम उठाता हूँ। आगरा में जाकर मेटर कंपोज करवाता हूँ और उस कंपोज मेटर को लोहे के मोल तुलवाकर (उस समय प्रेस में लोहे के साँचे में ढले अक्षर को ही, मशीन पर छापने के लिए काम में लाते थे।) नागपुर ले जाता हूँ। नागपुर में मुद्रण सस्ता है। दस हजार प्रतियाँ इसलिए छपवाता हूँ ताकि वे सस्ती पड़ें और मैं पूँजी को निकाल सकूँ। और इसका लाभ पाठकों को भी मिले विशेषकर छात्रों को इसलिए एक चौथाई कीमत में पुस्तकें दे देता हूँ। स्वयं विद्यालयों में जाकर कविता सुनाता हूँ ताकि नवयुवकों को उनके बल-विक्रम की याद दिलाता हुआ उनमें हुँकार भर सकूँ। यह युवक ही तो देश की स्वाधीनता की रक्षा कर सकते हैं। भ्रष्टाचार के घर में आग लगाने का सामर्थ्य उन्हीं में तो है। इसीलिए मैं उनको सचेत करते हुए कहता हूँ कि,


नींव के पत्थर तुम्हें सौगंध अपनी दे रहे हैं

जो धरोहर दी तुम्हें, वह हाथ से जाने न देना।

जो विरासत में मिला, वह खून तुमसे कह रहा है

सिंह की खेती किसी भी स्यार को खाने न देना।

देश की स्वाधीनता पर आँच तुम आने न देना। ”


इतना कहकर वे मौन हो गए। शायद वे अपने अंतर के उजाले से कह रहे थे, कि अन्यायों एवं विपरीत परिस्थितियों में स्वाधीनता को ग्रहण न लग जाए। इसकी चिंता तुम अवश्य करना।


हुंकार भरने वाली वाणी का वर प्राप्त करने वाले सरलजी फिर अपने मौन को तोड़ते हुए पुन: बोले, “कल मेरा काव्य-पाठ सार्वजनिक वाचनालय में है, आप अवश्य आइए और अपनी एक कविता वहाँ सुनाइए?”


उनके आदेश को शिरोधार्य कर मैंने उनसे रात्रि में अपने घर साथ-साथ भोजन करने का आग्रह किया किंतु उन्होंने उस आग्रह को सहजता सेटालते हुए कहा, “देखिए जब तक मैं अपने कवि-कर्म को निभाने के लिए कहीं जाता हूँ, अपने खर्च पर जाता हूँ। किसी लाज में ठहर कर वहीं भोजन करता हूँ। यहाँ भी मेरे मिलने वाले बहुत लोग हैं किंतु मैंने उनके आग्रह को भी नहीं माना। आप भी मेरी अस्वीकृति को अन्यथा न लेंगे।” मेरा पुन: आग्रह करने का स्वभाव न था, इसलिए उनसे विदा लेकर अपने निवास पर आ गया।


दूसरे दिन उनका खरगोन (पश्चिम निमाड़) में सार्वजनिक वाचनालय पर शाम 6 बजे काव्य-पाठ हुआ। आयोजन में भारी भीड़ थी। हाल खचाखच भरा था। सरलजी को सुनने कुछ शासकीय अधिकारी भी आए थे।


सरलजी के काव्य-पाठ की यह विशेषता रहती थी कि उनके स्वर को सुनकर वीर-रस की हुंकार श्रोता के कानों में अपने आप सुनाई देती थी। उनके शब्द-चयन की विशेषता यह थी कि शब्दों के साथ उठते भाव और शब्दों से उत्पन्न ध्वनि जैसे एक-दूसरे के पूरक हो जाते थे। राष्ट्र के प्रति अशेष आत्मार्पण और एकोपासना का भाव सरलजी की हर कविता में सुनाई देता था। उनका स्वर राष्ट्रधर्म और राजनीति की एकता का नहीं भावना और संस्कारों की एकता का प्रतीक होता था, जो राष्ट्र ऐसा नहीं कर पाता वह राष्ट्र अपना स्वरूप और अस्तित्व खो देता है। उनके काव्य-पाठ को सुनकर मेरे मन में इसी प्रकार के भाव उठ रहे थे कि श्रोताओं से वे सहसा बोले, “आज मेरे गले में कुछ तकलीफ है, इसलिए बस इतना ही सुना पाऊँगा किंतु मेरा आग्रह है, आप प्रेम भारती जी को अवश्य सुनिए, वे एक अच्छे कवि हैं। यहाँ रह कर भी आपने उन्हें पहचाना नहीं।” इतना कह कर उन्होंने मुझसे अपनी कविता श्रोता वर्ग को सुनाने का आग्रह किया।


मैंने उनके आग्रह को स्वीकार करते हुए अपने खंड-काव्य 'शबरी' के कुछ प्रसंग वहाँ सुनाए। यह वह अंश था, जो आज कल माध्यमिक शिक्षा मंडल मध्यप्रदेश की कक्षा 10वीं की सामान्य हिंदी में शामिल है। कविता पाठ समाप्ति पर था कि, तभी अचानक सरलजी बीच में बोल उठे, “मैं चाहता हूँ, यह खंडकाव्य खरगोन जिला हिंदी समिति के द्वारा प्रकाशित किया जाए। उनके आग्रह को सुनकर तत्कालीन जनसंपर्क अधिकारी श्री सूर्यप्रकाश गाँधी ने घोषणा की कि “हम इसे प्रकाशित करने का यत्न करेंगे।”


इस विषय में अधिक विस्तार से न जाते हुए, मैं इतना ही कहना चाहूँगा कि 'शबरी' का प्रथम प्रकाशन 1963 में ‘खरगोन जिला हिंदी समिति’ ने किया और सर्वाधिकार मुझे दिया। उसका प्रतिफल यह मिला कि पुस्तक के बिकने पर जो राशि पुस्तक प्रकाशन में व्यय हुई, उसे निकालने के बाद 08 तोला सोना मैंने अपनी पत्नी के लिए खरीदा। उस समय 60 रुपये तोला सोने का मूल्य था। मेरी पत्नी इसका श्रेय सरलजी को ही देती हैं।


यह पुस्तक कैसे बिकेगी इस संबंध में उन्होंने मुझे एक परामर्श दिया था जो कि मेरे जीवन का सूत्र बन गया। सरलजी का कहना था, “पुस्तक क्रय करने का आग्रह अपने मित्रों और परिचितों से कभी मत करना अन्यथा आपको निराशा ही हाथ लगेगी। पुस्तक की बिक्री, उसकी गुणवत्ता के आधार पर सहज ही होती है।” यह सूत्र आजीवन मेरे काम आया। सचमुच पुस्तक को अच्छे पदों पर बैठे मेरे साथियों ने नहीं खरीदा, तो मैं उससे निराश नहीं हुआ। पुस्तक को शिक्षा विभाग, पंचायत विभाग तथा आदिवासी विभाग के कुछ जिलों ने सहज ही खरीदा।


सरलजी की दूसरी सलाह उनकी थी, “एक पुस्तक को बेचने पर अधिक मार्ग व्यय तथा अन्य खर्चे होते हैं अत: जब तक 8-10 पुस्तकें प्रकाशित न कर लो, उन्हें बेचने की मत सोचना।”


सचमुच ये दोनों ही सूत्र मेरे जीवन में मुझे प्रकाशन की महत्वाकांक्षा पालने के खतरे से उबार सके| इसके लिए मैं सरलजी को सदैव याद करता हूँ। फिर मैं कोई पुस्तक वर्षों तक प्रकाशित नहीं करवा पाया लेकिन मेरा लेखन अबाध गति से चलता रहा। सरलजी से मैं जब-जब भी उज्जैन जाता, मिलता अवश्य। उनसे नए प्रकाशन की चर्चा भी सुनता। सेवा-निवृत्ति के पश्चात-साहित्य-परिषद (म.प्र.) के कार्यक्रमों में सहभागी बनकर डॉ. देवेन्द्र दीपक, जो उस समय साहित्य परिषद के निदेशक थे, के साथ मैं सरलजी से उनके दशहरा मैदान स्थित निवास पर अनेक बार मिला।


वर्ष 2000 के आस-पास मैं सरलजी से भेंट करने पहुंचा तब चर्चा के मध्य उन्होंने बताया, “मुझे आठ बार हार्ट-अटेक हो चुका है। यहाँ मेरे पास मेरा पौत्र अभिषेक रहता है, जो पढ़ाई के साथ-साथ मेरी सेवा करता है। अब मैंने बाहर जाना बंद कर दिया है।” मैंने देखा वे देह से निर्बल भले ही हो गए थे किंतु उनकी आँखों में एक विशेष प्रकार की चमक थी।


सहसा एक दिन सुना कि जीवनपर्यंत शहीदों का श्राद्ध करनेवाले प्रोफेसर श्रीकृष्ण सरल पंचतत्व में विलीन हो गए।


अपनी लेखनी को विराम देने के पूर्व उनके व्यक्तित्व की एक और विशेषता मैं पाठकों को बताना चाहता हूँ। सरलजी का लेखन महाकाव्यकार के नाते अधिक है किंतु उपन्यास, कहानी, एकांकी और निबंध भी उन्होंने लिखे हैं। 'चटगाँव का सूर्य’ उनका चर्चित उपन्यास है। इन सभी रचनाओं में उन्होंने कल्पनाओं का समावेश नहीं किया, बल्कि उन स्थानों पर स्वयं अपने खर्चे से जाकर तथ्यात्मक सामग्री संकलित करने का प्रयास किया। ऐसा वही रचनाकार कर सकता है जिसकी चाह युवकों में सर्वस्व लुटाकर अलख जगाने की हो। राष्ट्र-प्रेम के इसी जीवन-व्यापी संस्कार को लेकर वे जीवित रहे। सरलजी के काव्य में सर्वत्र देश की मिट्टी बोलती है। उनकी यही देन युवाओं के हृदय से जोड़नेवाली वह देन है, जो उनके द्वारा हमें छोड़ी गई विरासत के रूप में मिली है। सरलजी के प्राणों का अंत भले ही हो गया हो किंतु उनके इस आह्वान का अंत कभी न होगा। इसी आकांक्षा को लेकर वे अपने जीवन को अग्निहोत्र की तरह तपाते रहे।


प्रोफेसर अजहर हाशमी के शब्दों में “श्रीकृष्ण सरल की कविता कुर्सी पर बैठकर की गई टेबल-ड्राफ्टिंग नहीं है बल्कि प्रमाण जुटाने के लिए जगह-जगह खाक छानकर शूल-पत्थरों से लहू-लुहान पाँवों का दर्द सहते हुए टूरिस्ट की क्रिएटिव राइटिंग है।” यही कारण है कि श्रीकृष्ण सरल अपने लेखन से एक कवि के रूप में अपना सर्वोत्तम दे सके।


हमें भी उनसे प्रेरणा लेकर नवयुवकों में राष्ट्रभाव भरने का संकल्प लेना चाहिए। यही हमारी उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी !

 

डॉ. प्रेम भारती

वरिष्ठ साहित्यकार एवं शिक्षाविद, भोपाल

पूर्व सदस्य : माध्यमिक शिक्षा मण्डल कार्यसमिति, म.प्र. सर्व शिक्षा अभियान राज्य स्तरीय कार्यकारिणी, राज्य शिक्षक प्रशिक्षक मण्डल

म.प्र. साहित्य अकादमी पाठक मंच एवं पुरस्कार समिति, म.प्र. शासन ट्रायबल सोसायटी, म.प्र. राज्य स्तरीय संचालक मंडल

एम.ए. (हिंदी-अर्थशास्त्र) एम.एड, लघु पत्रिकाओं पर पी-एच.डी.

प्रकाशन : गद्य, पद्य, नाटक, उपन्यास, एकांकी, ज्योतिष, पत्रकारिता, योग, व्याकरण, बाल साहित्य पर 107 पुस्तकें

सम्मान : म.प्र.साहित्य अकादमी ‘श्रीकृष्ण सरल पुरस्कार’ (वर्ष 2011) व अनेक राष्ट्रीय एवं प्रांतीय पुरस्कारों से विभूषित

लेखक ई-परिचय - https://www.shrikrishnasaral.com/profile/pbharti/profile

email : blog@shrikrishnasaral.com

 

विशेष सूचना –

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