राष्ट्रकवि प्रोफेसर श्रीकृष्ण सरल को रस–सिद्ध कवि के रूप में साधक कवियों द्वारा कविताओं के माध्यम से दी गई श्रद्धांजलियों को ' सरल–काव्यांजलि ' ब्लॉग द्वारा वेबसाइट पर सहेजा जा रहा है
- डॉ. धर्मेन्द्र सरल शर्मा
अध्यक्ष, राष्ट्रकवि श्रीकृष्ण सरल साहित्य समिति
डॉ. उर्मिलेश | यतीन्द्रनाथ राही | डॉ. राजेन्द्र मिश्र | डॉ. योगेश्वर सिंह ‘योगेश’ | डॉ. शिवशंकर शर्मा | गोपालकृष्ण | सुरेश शर्मा | डॉ.सरोज मालपानी | रहीम होशंगाबादी | महेश कटारे ‘सुगम’ | रमाकांत बरुआ | प्रशांत टेहल्यानी | राधेश्याम कुंभलवार | बी.सी. जैन | उदय अचवाल | डॉ. नन्दकिशोर सोनी | कान्तिकुमार जैन | शशिनन्दन रावत | अज्ञात
डॉ. उर्मिलेश
बदायूँ, उत्तरप्रदेश, 12 मार्च 1991
श्री कृष्ण सरल ! श्री कृष्ण सरल !!
हे, राष्ट्र कवे ! शारदा-पुत्र ! हे क्रान्ति -दूत ! श्रद्धेय ! विमल !!
युग की बर्फीली जड़ता को
जलते युगमान दिये तुमने
तन्द्रिल - बोझिल तरुणाई को
पौरुष के मान दिये तुमने
भारत माता के चरणों पर धर दिये सृजन के पुण्य सकल !!
बलिदानी राष्ट्र - सपूतों को
तुमने सुधि के आयाम दिये
जो थे अनाम अब तक जग में
उनको अनगिनती नाम दिये
जलते प्रश्नों को उत्तर दे तुम बने लेखनी - पुत्र सफल !!
तुम रहे अभावों में लेकिन
भावों को कभी नहीं बेचा
मुस्कानों के बदले मन के
घावों को कभी नहीं बेचा
हे, हम - सबके प्रेरणा - स्रोत ! अभिवादन है तुमको प्रतिपल !!
यतीन्द्रनाथ राही
हरसूद, मध्यप्रदेश, 27 फरवरी 1991
डॉ. राजेन्द्र मिश्र ( संस्कृत कविता )
शिमला, हिमाचलप्रदेश, 12 मार्च 1991
डॉ. योगेश्वर सिंह ‘ योगेश ’
नीरपुर, पटना, बिहार, 06 अप्रैल 1994
पूजास्पद श्रीकृष्ण सरल को, बारम्बार नमन है !
तन से रहा न परिचय, मन से अभिनंदन–वन्दन है।
किया ‘क्रान्ति–गंगा’ का मैंने मधुमय रस आस्वादन,
महाग्रन्थ को करता हूँ मैं वन्दन औ ’ अभिवादन !
ऐसा लगता स्वयं व्यास ही आए यहाँ दुबारा,
क्रान्ति महाभारत का समुपस्थित कर दिया नजारा।
पाकर जिनका जीवन, जीवित भारत–वसुन्धरा है,
पाकर जिनका रक्त देश यह कितना हरा–भरा है।
उन पर कलम चलाकर तुमने अद्भुत काम किया है,
‘कृष्ण’, ‘सरल’, दोनों शब्दों का सार्थक नाम किया है।
नहीं किसी से माँगा, अपना शीश न कभी झुकाया,
पूर्ण राष्ट्र के लिए पूर्ण जीवन का पुष्प चढ़ाया।
कृष्ण सरल ! सचमुच ही तेरा जीवन धन्य हुआ है,
यश के हिमगिरि का तूने सर्वोत्तम शिखर छुआ है।
स्वयं क्रान्तिकारी, स्वतंत्रता के भी जो सेनानी,
कृष्ण सरल ! तुम से बढ़कर है और कौन बलिदानी ?
जी करता मैं लिखूँ तुम्हीं पर, अपनी भेंट चढ़ाऊँ,
कवि होकर क्यों सत्तालोलुप नेता का गुण गाऊँ ?
अब तक अपने को ही मैं कवि समझ रहा था भारी,
पर तेरी रचनाएँ पढ़, नतमस्तक हूँ आभारी।
देंगे आशीर्वाद, लिखूँ मैं भी कुछ ऐसा भाई !
जिससे मानवता के आगे मुझको मिले बड़ाई।
आशीर्वचन और पत्रोत्तर दें, है विनय विशेष
स्नेहाकांक्षी – योगेश्वर प्रसाद सिंह ‘योगेश’
छः अप्रैल साल, चौरानवे पावन दिन बुधवार
ग्राम–नीरपुर, अथमलगोला, पटना, राज्य बिहार
डॉ. शिवशंकर शर्मा
12 मार्च 1991
तुम हो सरल !
क्रान्ति के तुम चक्र हो
श्रीकृष्ण हो
तुम हो सरल
लिख रहे इतिहास रक्तिम
वीरवर
तुम हो तरल।
वीर–भोग्या वसुंधरा के गीत गायक तुम
राष्ट्र को झकझोरते–से
राष्ट्र–नायक तुम
शहीदों के उत्सर्ग की
उतारते तुम आरती
यश–कीर्ति से दूर
कोसों दूर
तुम हो विरल।
साहित्य की गति वायवी है
झूमता है देश
है सिसकती संस्कृति
बदल रहा परिवेश
आसुरी वृत्तियाँ जब
कर रही श्रृंगार
कर रहे साहित्य–मंथन
पी रहे
तुम हो गरल।
टेकल गोपालकृष्णा ( कन्नड़ कविता )
दिल्ली, 12 मार्च 1991
हिंदी काव्यानुवाद : डॉ.बी.वै.ललिताम्बा, इंदौर, मध्यप्रदेश
सुरेश शर्मा
12 मार्च 1991
रहीम होशंगाबादी
बीना, मध्यप्रदेश, 01 जनवरी 2011
वीरों की शहादत के नग्में, जब–जब भी सुनाए जाते हैं,
मरहूम ‘सरल’ इस दुनिया में हम, सबको बहुत याद आते हैं।
भारत के गिरामी कवियों में, मरहूम ‘सरल’ भी माहिर थे,
यूँ आज भी महफिल में उनके, हर गीत भी गाए जाते हैं।
जो लिख के गए हैं हम भी कभी, भूले से भुला न पायेगें,
श्रीराम के आश्रम में उनके काव्य–ग्रंथ भी पाए जाते हैं।
दुनिया में रहेगा सदियों तक, मरहूम ‘सरल’ का नाम अमर,
हर साल खिराज अकीदत में यूँ अश्क बहाए जाते हैं।
इक बार हमारी नगरी में हमने भी उन्हें देखा है ‘रहीम’,
उनकी यादों के अफसाने रह रहकर हमें तड़पाते हैं।
डॉ.सरोज मालपानी
किशनगढ़, राजस्थान, 2021
देश का हृदयस्थल संस्कृति है, करते पुष्ट उसे सुविचार,
रस-सिंचक साहित्य निभाता, संस्कृति संरक्षण का भार।
संस्कृति करती है पोषित, जीवन पाता जिससे सन्सार,
साहित्य विचारों का वाहक, समझाता है जीवन का सार।
श्रीकृष्ण सरल - साहित्य, विविध आयामी चेतना का भंडार,
संस्कृति और साहित्य विषय पर, हैं उनके अनमोल विचार।
रहीम होशंगाबादी
बीना, मध्यप्रदेश, 01 जनवरी 2010
महेश कटारे ‘ सुगम ’
बीना, मध्यप्रदेश, 01 जनवरी 2017
सरल नमन्
पिया दुखों का गरल हमारा तुम्हें नमन,
कवियों में हो विरल हमारा तुम्हें नमन।
बलिदानों की परम्परा के लिए जिए,
श्रीकृष्ण जी सरल हमारा तुम्हें नमन।
संघर्षों को गान बनाया है तुमने,
बलिदानी अभियान चलाया है तुमने।
देश प्रेम की परम्परा के दीवाने,
सच्चा बस कर्तव्य निभाया है तुमने।
ऐसे कुछ कुर्बान हुए आजादी को,
लिखा गया जिनका कोई इतिहास नहीं।
हँसते–हँसते वरण कर लिया मृत्यु को,
उनको थी अपने जीवन की प्यास नहीं।
उन अनजान दीवानों को भी श्रद्धांजलि,
उनको भी करते हैं हम शत्–शत् प्रणाम्।
बनकर पतझर के पात शाख से टूट गए,
जिनके जीवन में आया मधु मास नहीं।
रमाकांत बरुआ
ग्वालियर, मध्यप्रदेश, 19 दिसंबर 1996
प्रशांत टेहल्यानी
कोटा, राजस्थान, 28 जून 2023
व्यक्तित्व समूचा क्रान्ति–भाव का कैसे दर्पण होता है,
मैं आज बताता हूँ, शहीद का कैसे तर्पण होता है।
पल–पल की निःस्वार्थ साधना कहाँ सिन्धु बन जाती है,
कब शब्द–चेतना राष्ट्रभक्ति का चरम बिन्दु बन जाती है।
वह क्रान्तिकारी क्या ? पचा सके जो संघर्षों का गरल नहीं,
था सरल, किन्तु संतों जैसा उसका भी जीवन सरल नहीं।
इसीलिए वह राह चुनी थी, जहाँ चुकाना कर्जा था,
कर्ज चुका, उसको पाना ‘जीवित शहीद’ का दर्जा था।
उस क्रान्ति–कवि की गाथा गाकर चलो उऋण हो जाएँ हम,
शब्दों की गंगा बहे अगर, श्रीकृष्ण सरल पर वह भी कम।
आजादी का लक्ष्य चुना अचूक निशाना धारी ने,
एक सार्जेंट को पत्थर मारा बाल क्रान्तिकारी ने।
राष्ट्रभक्ति का शिखर छुआ, बालक ने बारह वर्ष में,
जूतों की ठोकर सर झेली, पुष्प वर्षा–से हर्ष में।
यातनाओं की तपन को ही महसूस उसे तब करना था,
इसी अग्नि की ऊर्जा से असंख्य पृष्ठों को भरना था।
चोटों की गहन निशानी को बहुमूल्य पदक–सा मान दिया,
इसीलिए गोरों के आगे अपना सीना तान दिया।
ऐसे सच्चे पूत ही हरते मातृभूमि के सारे तम,
शब्दों की गंगा बहे अगर, श्रीकृष्ण सरल पर वह भी कम।
आज हिमालय की गाथा, एक टीला गढ़ने बैठा है,
कलम भर स्याही का साहस सागर के आगे ऐंठा है।
मैं दो पग भी न चल पाया वहाँ सरलजी सरपट भागे थे,
इतिहास बुना था शब्दों से असंख्य रात्रि जागे थे।
रच डाला ब्रह्मांड वृहद जो नहीं कहीं अन्यत्र है,
क्रान्ति–मंडल में क्रान्तिकारी जितने भी नक्षत्र हैं।
अमर शहीदों जैसा जीवन, किया कठिन था व्रत धारण,
नहीं चाह प्रसिद्धि की, कुछ वह कहता था खुद को चारण।
बलिदानी गाथा रच–रचकर, वह भूल गया सब कड़वे गम,
शब्दों की गंगा बहे अगर, श्रीकृष्ण सरल पर वह भी कम।
सस्ता स्तरहीन कार्य, जब यश सोपान चढ़ जाता है,
सिगरेट का धुआँ यज्ञ धूम पर जब भारी पड़ जाता है।
जब भीड़ समूची दुनिया की ठुमकों के पीछे भागती है,
जो आजादी को मौज समझ न चिरनिद्रा से जागती है।
श्रीकृष्ण सरल–सा जीवन, तब कंटक राहें बन जाता है,
शौर्य को लिखनेवाले का हर क्षण आहें बन जाता है।
तब लेखन से आगे बढ़, खुद कवि को तपना पड़ता है,
तम हरने को तब दीप बाती–सा खुद ही खपना पड़ता है।
संघर्ष सुनोगे महाकवि का, आँखें हो जाएँगी नम,
शब्दों की गंगा बहे अगर, श्रीकृष्ण सरल पर वह भी कम।
इक अदना–सा कवि आज, महाकवि की गाथा गाएगा,
वह गिर–गिर कर कैसे संभला, हर पल की व्यथा बताएगा।
महाकाव्य सोलह एवं सवा सौ पुस्तक–लेखन प्रण,
थाती ये जन–जन तक पहुँचे, बना दिया जीवन को रण।
क्या आभूषण, क्या सम्पत्ति सब बेच दिया पुर्जा–पुर्जा,
पर साहित्यकार व सेनानी का मिला नहीं कोई दर्जा।
कर्जा, कंगाली, हृदयाघात, पर लेखन फिर भी जारी था,
क्रान्ति–कलम अनवरत चली, वो समय भले ही भारी था।
काव्य–मशाल ले दर–दर पहुँचा, जब तक थी सांसे, दम–में–दम,
शब्दों की गंगा बहे अगर, श्रीकृष्ण सरल पर वह भी कम।
इसीलिए इस कवि का भी, ये जो भी शब्द समर्पण है,
था महाकवि का क्रान्तिकारियों को वैसा उसको तर्पण है।
उसने सागर भर अर्घ्य दिया पर यहाँ अंजुरी खाली है,
पर चाह उपासक बनूँ मैं उसका कवि जो गौरवशाली है।
अदना ही पर क्रान्ति–लेखन का मैं भी एक उदाहरण हूँ,
क्रान्तिकारियों संग–संग मैं भी क्रान्ति–कवि का चारण हूँ।
किन्तु मेरा काज तभी ये पूर्ण लक्ष्य को पायेगा,
बच्चा–बच्चा राष्ट्रकवि की, जब मिल गाथा गायेगा।
इसीलिए यह आभा फैले, लगा लो अपना सब दम–खम,
शब्दों की गंगा बहे अगर, श्रीकृष्ण सरल पर वह भी कम।
राधेश्याम कुंभलवार
बालाघाट, मध्यप्रदेश, 24 जुलाई 1985
बी.सी. जैन
बीना, मध्यप्रदेश, 01 जनवरी 2014
यथार्थ–बोध
श्रीकृष्ण सरल की भारत–माता,
आज कहाँ से लाऊँ?
यौवन की थी, अँगड़ाई,
अब वह तरुणाई कैसे लाऊँ?
था देश स्वतन्त्र, जनतन्त्र स्वतन्त्र,
सम्प्रभुओं की थी गाथा स्वतन्त्र।
प्राणों का उत्सर्ग धरा पर,
विस्मृति के पल थे स्वतन्त्र।
श्रीकृष्ण ‘सरल’ का जागा पौरुष,
नापी भारत की गली–गली।
लिख दिये अनेकों महाकाव्य,
यथार्थ–बोध की ज्योति जली।
उदय अचवाल
बीना, मध्यप्रदेश, 01 जनवरी 2013
सोने चाँदी के सिक्कों में नहीं बिकते थे 'सरल'
कभी भगत सिंह कभी आजाद से खुद दिखते थे 'सरल',
ऐसे ही उनकी कविताओं में समाया नहीं है जोश
अपने शोणित को स्याही बनाकर लिखते थे 'सरल'।
डॉ. नन्दकिशोर सोनी
प्राचार्य, इन्दौर, मध्यप्रदेश, 2009
ओ ! अमर शहीदों के चारण !
एक दिन भी ऐसा आएगा।
जब राष्ट्र, हृदय में तुम्हें बिठाकर,
फूला नहीं समाएगा !
कान्तिकुमार जैन
बीना, मध्यप्रदेश, 01 जनवरी 2010
शशिनन्दन रावत
खिमलासा, मध्यप्रदेश, 01 जनवरी 2014
हे सरल ! कैसे बने आज कोई तुम–सा सरल,
वो सरल इतना सरल, जितना सरल कहना सरल।
हर कठिनतम मार्ग को अपने लिए चुनकर सरल,
हर शूल–सज्जित राह को भी फूल–सा माना सरल।
नाम चंचल कृष्ण का और राम जैसे तुम सरल,
द्वापर और सतयुग साथ ले साहित्य का तुम युग सरल।
उन शहीदों की व्यथा को कैसे कहें गाना सरल,
जिस व्यथा को बेच सब कुछ लिख सके केवल सरल।
बद से भी बदतर दौर में भी तुमने चुना लिखना सरल,
जो लिखा बस सच लिखा, दिल से लिखा दिल को गया छूकर सरल।
आफताब तुम साहित्य के मेहताब से शीतल सरल,
साहित्य के तुम सारथी, श्री कृष्ण अर्जुन के सरल।
अज्ञात
उज्जैन, मध्यप्रदेश, 01 सितंबर 2000
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