- डॉ. ( श्रीमती ) स्वाति चढ्ढा
' शब्द-साधक ' ब्लॉग श्रृंखला के इस अंक में प्रस्तुत है डॉ. स्वाति चढ्ढा का लेख
गृह मंत्रालय भारत सरकार राजभाषा संगोष्ठी सितंबर 2022 की स्मारिका से साभार
शीर्षक : हिन्दी भाषा से मिली स्वतंत्रता संग्राम को नई गति
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आज हम सबके लिए अत्यंत सौभाग्य का विषय है कि हम आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं । सर्व प्रथम हम नमन करते हैं भारत के उन समस्त ज्ञात-अज्ञात शहीदों को, जिन्होंने स्वतंत्रता की बलिवेदी पर अपने प्राण उत्सर्ग कर दिये। स्वतंत्रता आन्दोलन भारतीय इतिहास का वह युग है, जो क्रोध, पीड़ा, आंसू, कड़वाहट, क्षोभ, दंभ, आत्मसम्मान, गर्व, गौरव तथा सबसे अधिक शहीदों के लहू को समेटे है। स्वतंत्रता के इस महायज्ञ में समाज के प्रत्येक वर्ग ने अपने-अपने तरीक़े से बलिदान दिए और साहित्यकार तो सदा से ही चिंतन का स्रोत रहा है, तो भला जिस युग में भारत के इतिहास के स्वर्णिम युग का निर्माण हो रहा हो, उस समय साहित्यकार कैसे तटस्थ रह सकता था। उस दौरान इन विभिन्न साहित्यिक कृतियों ने भारतवासियों के हृदयों में सुधार व जागृति की उमंग उत्पन्न कर दी। स्वतंत्रता आन्दोलन के महायज्ञ में उस दौर के साहित्यकारों ने तत्कालीन समाज में चेतना के वो बीज बोये, जिनके अंकुरों की सुवास से सुवासित वृक्षों ने उस झंझावात को जन्म दिया, जिसने समाज के हर वर्ग को इस आंदोलन में ला खड़ा किया।
स्वतंत्रता के इस आंदोलन में हिन्दी साहित्यकारों के योगदान के संदर्भ में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का नाम अग्रणी है। उन्होंने अपनी कविताओं में अंग्रेज़ी शासकों तथा अनेक अधिकारियों द्वारा की जाने वाली लूट-खसोट तथा अन्याय का तीव्र विरोध किया। उन्हें इस बात का बड़ा क्षोभ था कि अंग्रेज़ भारत की सारी सम्पत्ति लूटकर विदेश ले जा रहे हैं। उनकी लेखनी ‘भारत दुर्दशा’ से अवगत कराते हुए लिखती है –
रोबहु सब मिलि, अबहु भारत भाई,
हा! हा! भारत दुर्दशा न देखी जाई ।
भारतेन्दु द्वारा रचित साहित्य का एक बड़ा भाग पराधीनता के प्रश्न से संबंधित है । उदाहरण के लिए 1877 में हिन्दी के प्रसार से संबंधित अपने एक भाषण में उन्होंने जन साधारण से निम्न मार्मिक प्रश्न किए : “यह कैसे सम्भव हो सका कि इन्सान होते हुए भी हम तो दास बन गए और वे (अंग्रेज़) राजा ?” उन्होंने अपने समकालीन माहित्यकारों को लोक साहित्य की विधाओं के इस्तेमाल की भी सलाह दी । उस समय उनके द्वारा ऐसे लोकप्रिय गीत लिखे जाते थे और प्रभात फेरियों एवं जन-सभाओं में गाये जाते थे । भारत में अंग्रेज़ी सरकार इनमें से कई गीतों पर प्रतिबंध लगाने के लिए बाध्य हुई लेकिन उन्हें इसमें अधिक सफलता नहीं मिली । इस प्रकार की रचनाओं का एक लाभ यह भी हुआ कि विदेशी शासन की असलियत को ऐसी भाषा में पेश किया गया, जिसे लाखों अशिक्षित भारतीय भी तुरंत समझ सकें और उससे प्रेरणा प्राप्त कर सकें। भारतेन्दु ने भारतीय जन मानस के साथ हो रही लूट और अंग्रेजों के अत्याचार को बड़े मार्मिक ढंग से “मुकरी” के रूप में वर्णित किया है, उसमें उन्होंने “लूट’ की निम्नलिखित व्याख्या दी है:
भीतर भीतर सब रस चूसै ।
हंसि हंसि के तन-मन-धन मूसै ।
जाहिर बातन में अति तेज ।
क्यों सखि साजन नहिं अँगरेज ।
उन्होंने अपनी बात जनता तक पहुंचाने के लिए विभिन्न लोक विधाओं का चयन किया, जो केवल कविता तक ही सीमित नहीं थीं । भारतेन्दु ने अपने कुछ नाटकों में भी अपने समय की प्रचलित विधाओं एवं कथाओं का उपयोग किया।उदाहरणस्वरूप “अंधेर नगरी चौपट राजा” में उन्होंने अंग्रेज़ी शासन के निरंकुश और उत्पीड़नकारी चरित्र का चित्रण करने के लिए एक ऐसी लोक कथा का उपयोग किया, जो देश के विभिन्न भागों में सामान्य रूप से प्रचलित थी । इस कथा में राजनीतिक संदेश तो स्पष्ट रूप में मिलता ही है, पाठक का मनोरंजन भी होता है । ‘अंधेर नगरी चौपट राजा’ व्यंग्य के माध्यम से भारतेन्दुजी ने तत्कालीन राजाओं की निरंकुश अंधेरगर्दी, उनकी अराजकता और मूढ़ता पर व्यंग्य किया है। राजनीतिक उद्देश्यों के लिए हास्य-व्यंग्य का कारगर प्रयोग भारतेन्दु की रचनाओं में मिलता है । अपनी गंभीर कृतियों में भी भारतेन्दु ने पाठकों का भरपूर मनोरंजन किया है। ‘भारत दुर्दशा’ (1880) में जो कि उनका एक सीधा सच्चा राजनीतिक नाटक है, भारतेन्दु ने कई हास्यप्रद दृश्यों और संवादों को शामिल किया है ।
उस दौर के प्रताप नारायण मिश्र, बद्रीनारायण चौधरी, राधाकृष्ण दास, ठाकुर जगमोहन सिंह, पं. अम्बिका दत्त व्यास, बाबू रामकृष्ण वर्मा आदि समस्त हिन्दी साहित्यकारों ने भी स्वतंत्रता आंदोलन की धधकती हुई ज्वाला को प्रचंड रूप दिया, जिनकी रचनाओं ने राष्ट्रीयता के विकास में बहुत योगदान दिया। बंकिमचन्द्र ने ‘आनंद मठ’ व ‘वंदेमातरम्’ की रचना की, जिन्होंने बंगाल में क्रांतिकारी राष्ट्रवाद की पाठ्य पुस्तक का कार्य किया। माखनलाल चतुर्वेदी, रामनरेश त्रिपाठी, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, श्रीकृष्ण सरल और सुभद्रा कुमारी चौहान ने राष्ट्रप्रेम को ही मुखरित नहीं किया, बल्कि आज़ादी की लड़ाई में भी भाग लिया। माखनलाल चतुर्वेदी ने पुष्प के माध्यम से अपनी देशभक्ति की भावना को व्यक्त किया –
चाह नहीं मैं सुरबाला के गहनों में गूंथा जाऊं
चाह नहीं मैं प्रेमी माला में बिंध प्यारी को ललचाऊं
मुझे तोड़ लेना वनमाली उस पथ पर तू देना फेंक
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने जिस पथ जाएं वीर अनेक।
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने अपनी रचनाओं के जरिए आजादी के मतवालों में जोश भरने का काम किया था। उन्होंने राष्ट्रीयता का प्रचार-प्रसार कर भारत के रणबांकुरों को स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने बहुत सरल शब्दों में देश के लोगों की चेतना को झकझोर कर रख दिया था। उन्होंने सोई हुई भारतीयता को जगाते हुए कहा –
जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है
वह नर नहीं, पशु निरा है और मृतक समान है।
भारत भारती ने जहाँ एक ओर राज्य क्रान्ति करने में अहम भूमिका निभाई है, वहीं उसकी गूँज हर भारतवासी पर पड़ी और वह उद्वेलित हो उठा, भारत भारती के मंगलाचरण में गुप्तजी लिखते हैं-
मानस भवन में आर्यजन जिसकी उतारें आरती – भगवान ! भारत वर्ष में गूँजे हमारी भारती।
गुप्तजी अपने आराध्य राम से भी यह प्रार्थना करते हैं कि हमें ऐसी प्रेरणा दें, जिससे हम अपने देश, अपनी संस्कृति व अपनी वेशभूषा को न भूल पाएँ –
राम, तुम्हें यह देश न भूले, धाम-धरा-धन जाय भले ही, यह अपना उद्देश्य न भूले।
‘मेरा देश’ शीर्षकवाली रचना में गुप्तजी के राष्ट्रीय विचार कुछ इस प्रकार हैं-
बलिहारी तेरा वर देष, मेरा भारत, मेरे देश। बाहर मुकुट विभूषित काल, भीतर जटाजूट का जाल।
‘चेतना’ नामक कविता में तो गुप्तजी भारत को सचेत करते दिखायी देते हैं –
अरे भारत ! उठ आँखें खोल, उड़कर यन्त्रों से, खगोल में घूम रहा भूगोल।
‘स्वदेश-संगीत’ कविता में उन्होंने भारत के सम्बन्ध में कहा है –
उत्पन्न मुक्ति भी हुई अहा! भारत में, मनु के स्वतन्त्र को सुखी कहा भारत में।
गुप्तजी की ‘मातृभूमि’ कविता पद्य-प्रबन्ध में है, किन्तु उसी के समय गुप्तजी की राष्ट्रीय भावना की एक कविता इस प्रकार है –
मस्तक ऊँचा हुआ यहीं का, धन्य हिमाचल का उत्कर्ष। हरि का क्रीड़ा क्षेत्र हमारा, भूमि-भाग्य-सा भारत वर्ष।
तत्कालीन हिन्दी साहित्यकारों में शिरोमणि लेखक, क़लम के सिपाही मुंशी प्रेमचंद की रचनाओं ने मृतप्राय: लोगों में भी प्राण फूंक दिए। उन्होंने अपने अधिकारों के प्रति उदासीन, फ़र्ज़ व अफ़सरशाही के बोझ तले दबे किसानों व दलितों में जन-जागरण का ऐसा बिगुल बजाया कि भारतीय जनता हुंकार उठी और इसी साहित्य ने लोगों में सरफ़रोशी का जज़्बा भर दिया। मुंशी प्रेमचन्द की न जाने कितनी रचनाओं पर रोक लगी, न जाने कितना साहित्य जलाने की कोशिश की गई, परन्तु उनकी लेखनी सदा एक सच्चे क्रांतिकारी की भांति स्वतंत्रता आंदोलन में विस्फोटक का कार्य करती रही। प्रेमचन्दजी के पीछे अंग्रेज़ सरकार का खुफ़िया विभाग लगा रहा तथा उनकी रचना ‘सोज़े वतन’ के विषय में उन्हें तलब किया गया। नवाब राय की स्वीकृति पर उन्हें डराया-धमकाया गया तथा ‘सोज़े वतन’ की प्रतियां जला दी गईं, परन्तु एक सच्चे क्रांतिकारी की भांति अंग्रेज़ों की इस दमनकारी नीति से प्रभावित हुए बिना मुंशी प्रेमचंद की लेखनी इस आंदोलन में वैचारिक क्रांति उगलती रही।
गोपालदास नीरज ने भी अपनी रचनाओं के माध्यम से राष्ट्रवाद का अलख जगाई –
मैं विद्रोही हूं
जग में विद्रोह कराने आया हूं
क्रांति का सरल सुनहरा राग सुनाने आया हूं
विद्रोह का शंख बजानेवाले कवि नीरज की उक्त पंक्तियों से ही उनका स्वतंत्रता आंदोलन में योगदान स्पष्ट झलकता है। लोगों को ज़ुल्म के आगे न झुकने की प्रेरणा देते हुए नीरज ने कहा था –
देखना है ज़ुल्म की रफ़्तार बढ़ती है कहां तक।
देखना है बम की बौछार है कहां तक।
इसी प्रकार ‘दिनकर’ की तूलिका ने ऐसे ही वीरों के स्वागत में लिखा –
क़लम आज उनकी जय बोल
जला अस्थियां बारो-बारी
छिटकायी जिसने चिंगारी
जो चढ़ गए पुण्यवेदी पर
लिए बिना गर्दन का मोल
क़लम आज उनकी जय बोल।
जयशंकर प्रसाद यद्यपि सौन्दर्य, प्रेम तथा प्रकृति के चित्रकार हैं, तथापि युग की प्रवृत्तियों से भी वे अछूते नहीं रहे हैं। उनके काव्य में पराधीनता के प्रति आवेश एवं स्वाधीनता के लिए ललक पायी जाती है। उनकी राष्ट्रीय भावनाओं की अभिव्यक्ति काव्य की अपेक्षा नाटकों में अधिक एवं स्पष्टता से हुई है। अतीत का चित्रण करते समय कवि ने राष्ट्रीय उद्गारों को व्यक्त करने का अवकाश निकाल ही लिया है। ‘चन्द्रगुप्त’ नाटक में कार्नेलिया का ‘अरुण यह मधुमय देश हमारा’ तथा स्कन्दगुप्त में ‘प्रथम जिसे किरणों का दे उपहार’ बाल गीत भारत के प्रति उनकी असीम भक्ति प्रदर्शित करता है। उन्होंने ‘चन्द्रगुप्त’ में स्वतन्त्रता की बलिवेदी पर सहर्ष बलिदान होनेवाले का आह्वान किया है –
हिमाद्रि तुंग शृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती।
स्वयंप्रभा समुज्ज्वला स्वतन्त्रता पुकारती।।
अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़ प्रतिज्ञ सोच लो ।
प्रशस्त पुण्य पंथ है बढ़े चलो बढ़े चलो।।
हम भारतीयों की अच्छाई के बारे में बताते हुए वे कहते हैं कि –
किसी का हमने छीना नहीं, प्रकृति का रहा पालना यहीं।
हमारी जन्मभूमि थी यहीं, कहीं से हम आये थे नहीं।
जयशंकर प्रसाद बार-बार देशवासियों को जगाते हुए गौरवमय अतीत का स्मरण कराते हैं। साथ ही देशवासियों को मातृभूमि के गौरव का स्मरण करवाते हुए वे कहते हैं कि हम वही आर्य संतान हैं, जिन्होंने मातृभूमि की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया। अतः हमें भी अपनी मातृभूमि को स्वतंत्र कराने के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने के लिए तत्पर रहना चाहिए, वे लिखते हैं –
वही है रक्त, वही है देश, वही है साहस, वैसा ज्ञान।
वही है शांति, वही है शक्ति, वही हम दिव्य आर्य-संतान।।
लहर में संकलित प्रसाद की कविता ‘अब जागो जीवन के प्रभात’ पर विचार करें तो प्रसाद की राष्ट्रीय चेतना स्वच्छंदतावाद की मूल चेतना से अभिन्न जान पड़ेगी –
अब जागो जीवन के प्रभात
वसुधा पर ओस बने बिखरे।
हिमकन आंसू जो क्षोभ भरे
उषा बटोरती अरुण गात।।
कवि जयशंकर प्रसाद उपर्युक्त पंक्ति के माध्यम से देशवासियों को जगाने की बात कर रहे हैं। वह देशवासियों को राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल होने को प्रेरित कर रहे हैं। वह कह रहे हैं कि जिस प्रकार सूर्य रात के अंधकार को समाप्त करता है, उसी प्रकार तुम भी जागो और पराधीनता रूपी रात को समाप्त करो।
कवि जयशंकर ने ‘बीती विभावरी जाग री’ के माध्यम से भी लोगों को जागृत करने के लिए प्रेरित किया है –
बीती विभावरी जाग री
अंबर पनघट में डुबो रही
तारा घट उषा नागरी।।
जयशंकर प्रसाद इन पंक्तियों में भी जनमानस को स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने को प्रेरित करते हुए कहते हैं कि अब गुलामी रूपी रात का छॅंटने का समय आ गया है। अब आजादी रूपी उषा को फैलना है। अतः सभी देशवासी एक साथ मिलकर विदेशियों का सामना कर उन्हें अपने देश से भगा दें और सूर्य की तरह अपनी मातृभूमि पर फैल जाएं।
कवि प्रसाद जनमानस को अनेक प्रकार से समझाने का प्रयास कर रहे हैं, कभी प्रकृति के माध्यम से तो कभी नायक–नायिका के माध्यम से। कवि का मानना है कि जब सभी लोग एकत्रित होकर इस लड़ाई को लड़ेंगे तभी आजादी हमें मिल पाएगी। जब मानव चाहेगा तभी, उसके लिए कोई कार्य असंभव नहीं है –
मानव जब जोर लगाता है
पत्थर पानी हो जाता है
श्यामलाल गुप्त पार्षद की लेखनी के साथ तो हर तरफ़ यही आवाज़ गूंज उठी –
विजयी विश्व तिरंगा प्यारा झंडा ऊंचा रहे हमारा।
गोपालदास व्यास के शब्दों में –
आज़ादी के चरणों में जो जयमाल चढ़ाई जाएगी।
वह सुनो, तुम्हारे शीशों के फूलों से गूंथी जाएगी।
उस दौर में श्रीकृष्ण सरल ऐसे समर्पित और संघर्षशील हिन्दी साहित्यकार रहे, जिन्होंने लेखन में कई विश्व कीर्तिमान स्थापित किए। उन्होंने 125 ग्रंथों का प्रणयन किया, सर्वाधिक क्रांति लेखन और सर्वाधिक 15 महाकाव्यों की रचना का श्रेय भी सरलजी को ही जाता है। सरलजी ने गद्य और पद्य में समान रूप से लेखन किया है। नेताजी सुभाषचंद्र बोस पर तथ्यों के संकलन के लिए सरलजी ने स्वयं के व्यय से उन 12 देशों का भ्रमण किया, जहॉं नेताजी और उनकी आजाद हिंद फौज ने आजादी की लड़ाइयां लड़ी थीं। भारत की क्रांति यात्रा के बारे में सरलजी ने 5 खंडों में विभक्त ‘क्रांतिकारी कोश’ तैयार किया था, जिसमें 1500 से अधिक पृष्ठ और 2000 से अधिक क्रांतिकारियों प्रकाश शहीदों के विषय में प्रामाणिक जानकारी जुटा-जुटाकर उनके रेखाचित्र भी दिए गए हैं। इस श्रमसाध्य और प्रज्ञापुष्ट ग्रंथ को क्रांतिकारियों के संदर्भ में अत्यंत प्रामाणिक माना जाता है।इसे ‘क्रांतिकारियों का एनसाइक्लोपीडिया’ के नाम से भी जाना जाता है। सरलजी कहते हैं –
होती शहीद के शोणित में वह शक्ति प्रबल
वह किसी देश की कालिख को धो सकता है,
अगणित जीवन मिलकर, जो काम न कर पाते
वह बलिपंथी के शोणित से हो सकता है।
अपने कट्टर स्वाभिमानी व्यक्तित्व के कारण ही उन्होंने स्वतंत्राता संग्राम सेनानी की पेंशन लेने से संबंधित कार्रवाई तक नहीं की, जबकि वे आजीवन स्वाधीनता संग्राम सेनानी रहे। उन्होंने 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में खुलकर भाग भी लिया था तथा 2 बार जेल भी गए थे। उनके साथी शान से स्वतंत्राता संग्राम सेनानी की पेंशन और सम्मान प्राप्त करते रहे, किंतु श्री सरल को पेंशन पाने के लिए कार्रवाई करना, सरकारी कार्यालयों के चक्कर काटना और अनुयय-विनय करना मंजूर नहीं था। रोचक बात यह कि उनके द्वारा अनुशंसित कई व्यक्ति पेंशन पा गए। हर सामान्य भारतवासी की ही तरह श्रीकृष्ण सरल भी आजादी के लिए उत्सुक थे। भारत की गुलामी की पीड़ा उनके मन में गहरे तक पैठी हुई थी तथा भारत की आजादी के लिए संघर्षरत क्रांतिकारियों पर हो रहे अत्याचारों से वे अत्यंत व्यथित थे। ऐसे क्रांतिकारी वातवरण में कवि सरल के हृदय में छिपी राष्ट्र-वेदना और उससे उपजी सृजन-चेतना देश के उद्दीप्त यौवन की पुकार बन जाती है –
जो देश धरा के लिए बहे,वह शोणित है
अन्यथा रगों में बहने वाला पानी है,
इतिहास पढ़े या लिखे जवानी वह कैसे
इतिहास स्वयं बन जाए,वही जवानी है।
‘क्रांति गंगा’ महाकाव्य भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन पर सरलजी द्वारा रचित सर्वाधिक वृहद सचित्र महाकाव्य है, जिसमें 15,000 चतुष्पदियाँ समाहित हैं। शहीद भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, सुभाषचन्द्र बोस, अशफाकउल्ला खान, मैडम भीकाजी कामा, अहिल्याबाई होल्कर, नानासाहब पेशवा की पुत्री मैना, करतारसिंह सराबा, लोकमान्य तिलक और स्वामी विवेकानंद जैसे महानायकों को अपने महाकाव्य/खण्डकाव्य लेखन का पात्र बनाकर सरलजी ने उनकी वीरता को अक्षुण्णता प्रदान की। अपने जीवन के उत्तरार्ध में सरलजी ने ‘तुलसी मानस’, ‘सरल-रामायण’, ‘सरल-सीतायन’ और ‘महाबली हनुमान’ जैसे आध्यात्मिक महाकाव्यों की रचना भी की।
उस दौर की व्यथा को आवाज देते हुए सरलजी कहते हैं –
स्वागत तुम्हारा हम कैसे करें वसंत,
देश पराधीन, हम सब पराधीन हैं।
बंदी है मातृभूमि, बंदी हम लोग सब,
साधन विहीन, सब भांति हम दीन हैं।
कैसी विडंबना है ,शासक फिरंगी यहां,
शोषण हमारा करने में हुए लीन हैं।
राष्ट्रप्रेम के साहित्यकारों में सुभद्रा कुमारी चौहान का नाम बड़े ही आदर और सम्मान के साथ लिया जाता है। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में बढ़-चढ़कर भाग लिया था। सुभद्राजी ने स्वतंत्रता संग्राम में भगत सिंह और अन्य क्रांतिकारियों के साथ मिलकर काम किया। वे मूलत: कवयित्री थीं। इन्हें क्रांति गीत लिखना बेहद पंसद था। तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में अपनी उग्र रचनाओं से वे देशवासियों के विद्रोह की भावना को जागृत करने का प्रयास करती थीं। सुभद्रा कुमारी चौहान की ‘झांसी की रानी’ कविता को कौन भूल सकता है, जिसने अंग्रेजों की चूलें हिला कर रख दीं। वीर सैनिकों में देशप्रेम का अगाध संचार कर जोश भरनेवाली अनूठी कृति आज भी प्रासंगिक है –
सिंहासन हिल उठे, राजवंशों ने भृकृटि तानी थी,
बूढ़े भारत में भी आई, फिर से नई जवानी थी।
गुमी हुई आजादी की, कीमत सबने पहिचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।
चमक उठी सन् सत्तावन में वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी।
वहीं पं. श्यामनारायण पाण्डेय ने महाराणा प्रताप के घोड़े ‘चेतक’ के लिए 'हल्दी घाटी' में लिखा –
रणबीच चौकड़ी भर-भरकर, चेतक बन गया निराला था
राणा प्रताप के घोड़े से, पड़ गया हवा का पाला था।
गिरता न कभी चेतक, तन पर राणा प्रताप का कोड़ा था
वह दौड़ रहा अरि मस्तक पर, या आसमान पर घोड़ा था।
इस प्रकार अंग्रेजों को भगाने में उस दौर के कलमकारों ने अपनी भूमिका बखूबी निभाई। क्रांतिकारियों से लेकर देश के आम लोगों तक लेखकों ने अपने शब्दों से जोश भरा। प्रेमचंद कृत रंगभूमि कर्मभूमि उपन्यास हो या भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का 'भारत-दुर्दशा' नाटक या जयशंकर प्रसाद का 'चन्द्रगुप्त', सभी रचनाएं देशप्रेम की भावना से भरी पड़ी हैं। इसके अतिरिक्त वीर सावरकर की कृति '1857 का प्रथम स्वाधीनता संग्राम' हो या जवाहरलाल नेहरू की पुस्तक 'भारत एक खोज' या फिर लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की 'गीता रहस्य' या शरद बाबू का उपन्यास 'पथ के दावेदार' : ये सभी किताबें ऐसी हैं जो लोगों में राष्ट्रप्रेम की भावना जगाने में कारगर साबित हुईं। उपन्यास और कहानी के अलावा कवियों ने अपनी कविताओं से लोगों में देशप्रेम का ऐसा अलख जगाया कि लोग घरों से बाहर निकल आए और स्वतंत्रता आंदोलन में हिस्सा लिया।
स्वतंत्रता-यज्ञ में इन सभी साहित्यकारों ने अपना कर्तव्य अपनी कलम से भली प्रकार से निभाया और हिन्दी साहित्य में राष्ट्रवाद की चेतना के दर्शन कराए। ये वही कलम के सिपाही हैं, जिन्होंने दम तोड़ती मानवता को पुनर्जीवित किया तथा भारतवासियों में भारतीयता व भारतीय गौरव की भावना का सृजन किया। आज भी यज्ञ वही है, समिधा भी वही है, पर आज आवश्यकता है उस क़लम के सिपाही की, जो दम तोड़ती मानवता को पुन: जीवित कर सके, जो मात्र निज-स्वार्थ में लिप्त, भारतवासियों में भारत, भारतीयता व भारतीय गौरव की भावना का सृजन कर सके। आज केवल साहित्यकार ही धृष्ट व भ्रष्ट मानव को पुन: मानवीय मूल्यों की महत्ता पर चिन्तन करने को विवश करने में सक्षम है। देश की स्वतंत्रता के लिए 1857 से लेकर 1947 तक क्रांतिकारियों व आंदोलनकारियों के साथ ही हिन्दी साहित्य के लेखकों, कवियों और पत्रकारों ने भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई और हिन्दी साहित्य को अपनी कालजयी रचनाओं से समृद्ध किया। उनकी गौरव-गाथा हमें प्रेरणा देती है कि हम स्वतंत्रता के मूल्य को बनाए रखने के लिए कृत संकल्पित रहें।
संदर्भ ग्रन्थः
1. हिन्दी साहित्य: युग और प्रवृत्तियां, डॉ. शिव कुमार शर्मा
2. हिन्दी साहित्य: स्वतंत्रता संघर्ष के विविध आयाम, डॉ. देवदत्त तिवारी
3. बीसवीं शताब्दी का हिन्दी साहित्य: नए संदर्भ में, डॉ. लक्ष्मीनागर वार्ष्णेय
4. हिन्दी साहित्य का इतिहास, डॉ. नगेंद्र मयूर प्रकाशन, 1996
5. प्रेमचंद-जीवन और कृतित्व, हंसराज रहबर
6. प्रसाद का विकासात्मक अध्ययन, किशोरीलाल गुप्त
7. प्रसाद के काव्य का काव्य शास्त्रीय अध्ययन, डा. सुरेन्द्रनाथ सिंह
8. सरल रामायण (महाकाव्य), श्रीकृष्ण सरल
डॉ. स्वाति कपूर चढ्ढा
एम.ए., पीएच.डी. (नागपुर)
हिंदी अधिकारी, सीएसआईआर - राष्ट्रीय रासायनिक प्रयोगशाला, पुणे
60 से अधिक शोधपत्र/लेख, एक काव्य संग्रह – ‘मेरे एहसास भाव’ प्रकाशित
वैश्विक हिंदी सम्मेलन द्वारा - भारतीय भाषा सेवी महिला सम्मान
लेखिका ई-परिचय - https://www.shrikrishnasaral.com/profile/swati-chadha/profile
email : blog@shrikrishnasaral.com
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