–धरमवीर ' धरम '
'सरल-कीर्ति' ब्लॉग शृंखला के इस अंक में प्रस्तुत है
दिल्ली विश्वविद्यालय के शोधार्थी एवं चर्चित युवा कवि
धरमवीर ' धरम ' का समीक्षात्मक आलेख
शीर्षक : नेताजी सुभाष और आजाद हिन्द फौज की साहस गाथा है पुस्तक 'जय–हिन्द' | लेखक : धरमवीर 'धरम'
" जिस कर्तव्य का निर्वाह कवि भूषण ने शिवाजी के प्रति किया था, उसी का निर्वाह सरलजी ने
शहीदों व क्रान्तिकारियों के प्रति किया है। "
-कर्नल गुरुबख़्शसिंह ढिल्लन,आजाद हिन्द फौज
जय–हिन्द को लेखक श्रीकृष्ण सरल ने ऐतिहासिक घटनाओं का औपन्यासिक प्रस्तुतिकरण कहा है। बहुत हद तक यह बात ठीक भी है क्योंकि ऐतिहासिक घटनाओं का सटीक एवं सजीव चित्रण हमें इस पुस्तक में मिलता है। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस और उनके द्वारा बनाई गई आजाद हिन्द फौज के समस्त क्रियाकलापों, उपक्रमों एवं घटनाओं का विस्तृत वर्णन बड़ी ही सजगता से लेखक ने किया है।
जनवरी 1941 से कहानी प्रारंभ होती है। कलकत्ता में नेताजी के घर के बाहर अंग्रेज पुलिस का पहरा है, ब्रिटानिया हुकूमत उन्हें खोज रही है। मौलवी का भेष धारण कर बोस निकलते हैं। यहीं से नेताजी की यात्रा आरंभ होती है। अपने सहायक क्रान्तिकारियों के साथ पेशावर होते हुए काबुल पहुँचते हैं वहाँ से फिर जर्मनी की यात्रा। इस बीच नेताजी कई भेष बदलते हैं। कहीं चाचा जियाउद्दीन और गूंगे बहरे बन जाते हैं, कहीं पठान के किरदार में आ जाते हैं। नेताजी को कई भाषाएँ आती हैं, पश्तो, अरबी, कश्मीरी, जर्मन इत्यादि भाषाओं में बात करने में वे सहज हैं। यात्रा में कितनी दुर्लभ स्थितियों को भी नेताजी अपने कौशल से संभाल लेते हैं, इसका चित्रण मिलता है। जर्मनी में उनका नाम औरलैंडो मैजोटा होता है। जर्मनी का घटनाक्रम दिलचस्प है। जर्मनी के तत्कालीन चांसलर एडोल्फ हिटलर नेताजी सुभाष बोस से मिलने को उत्सुक थे। नेताजी की बहादुरी के किस्से उन तक पहले से पहुँच गए थे। हिटलर और नेताजी की मुलाकात ऐतिहासिक तारीख बन गई। हिटलर ने पूर्ण सहयोग का वचन दिया। जर्मनी में रह रहे भारतीयों को नेताजी ने संबोधित किया और आजाद हिन्द फौज के बारे में लोगों को अवगत कराया। जर्मनी से नेताजी जल मार्ग से टोकियो पहुँचे, वहाँ जापान के प्रधानमन्त्री से मुलाकात की, जापान से सहयोग लेकर आजाद हिन्द फौज के तत्कालीन अध्यक्ष क्रान्तिकारी रासबिहारी बोस के साथ सिंगापुर आ गए। सिंगापुर में हजारों लोग एकत्रित हुए, सभा आयोजित हुई और रासबिहारी बोस ने आजाद हिन्द फौज के नए अध्यक्ष के रूप में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस को चुने जाने की घोषणा की, चारों ओर से जय–हिन्द के नारे गूँजने लगते हैं। यहाँ तक कथानक शहर–दर–शहर यात्रा करता रहा है। लेखक श्रीकृष्ण सरल ने विभिन्न देशों की यात्रा का संक्षिप्त वर्णन किया है, उन्हें जो महत्व का लगा उतना ही रखा। प्रारम्भ से अंत तक जय–हिन्द का घोष मन्त्र की तरह उच्चारित किया गया है। जय–हिन्द का नारा आजाद हिन्द फौज और इस पुस्तक का प्राण तत्व है।
आजाद हिन्द फौज के उपक्रमों को लेखक ने अधिक बारीकी से वर्णित किया है। साथ ही नेताजी के साहस का वर्णन करते लेखक की कलम नहीं थकती। जर्मनी से जापान की ओर जाते समय पनडुब्बी को अत्यधिक खतरा हो जाने के बावजूद नेताजी के चेहरे पर भय की रेखा नहीं दिखाई पड़ती, वे अपने सचिव को आगामी रूपरेखा लिखवाने के कार्य में लगे रहते हैं। नेताजी की अभयता के किस्से भरे पड़े हैं, युद्ध के दौरान अपिया गाँव के सभा–भवन में ठहरी आजाद हिन्द फौज पर जब ब्रिटिश सेना गोलियाँ बरसा रही थी तब नेताजी सभा–भवन के बाहर चबूतरे पर निश्चिन्तता से विश्राम कर रहे थे, गोलियाँ उनके इर्द–गिर्द पड़ रही थीं किन्तु नेताजी को कोई गोली छू न सकी, उनकी अभयता अजेय है। नेताजी ने एक बार सत्य ही कहा था कि "अभी ब्रिटिश कारखानों में वो गोली नहीं बनी है जो सुभाषचन्द्र बोस के प्राण ले सके।"
नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की भावुकता का चित्रण भी लेखक ने बखूबी किया है। नेताजी जैसे साहसी, गम्भीर और सिंह प्रवृत्ति के व्यक्तित्व को भावुक दर्शाना बड़ी चुनौती है किन्तु चूँकि लेखक श्रीकृष्ण सरल मूलतः कवि हैं तो कवि हृदय के लिए भावुकता चुनौती नहीं अपितु वरदान है। नेताजी की आँखों में अश्रु का सर्वप्रथम उल्लेख आजाद हिन्द सरकार के गठन के समय मिलता है। आजाद हिन्द सरकार के प्रधानमन्त्री के रूप में शपथ लेते हुए नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का गला रुँध जाता है और वे भावुक हो रो पड़ते हैं। इस प्रकार का दृश्य लोगों ने पहली बार देखा। लेखक ने आगे आजाद हिन्द फौज के लिए दान लेते समय नेताजी को भावुक दिखाया है, जब लोग अपने जीवन भर की सम्पत्ति मातृभूमि के लिए हँसते–हँसते दान कर देते हैं, ऐसा ही उदाहरण व्यापारी हबीब साहब का है जिन्होंने अपनी समस्त सम्पत्ति दान कर दी और स्वयं आजाद हिन्द फौज में भर्ती होने की इच्छा जताई, नेताजी के अश्रु छलक पड़े। यह दूसरी बार था जब नेताजी भावुक हुए। जापानी सेना के साथ आजाद हिन्द फौज का प्रशिक्षण हुआ तत्पश्चात आजाद हिन्द फौज युद्ध के लिए रंगून स्टेशन से प्रस्थान करने लगी। सेना को विदा करते समय नेताजी स्वयं को रोक नहीं पाए और फिर रो पड़े। फौज ने अपने जाँबाज नायक के हृदय में मातृत्व का भाव पाया।
लेखक का कवि होना कथानक में जान फूँकता है। भावुकता के चित्र तो गहरे उतरते ही हैं साथ ही युद्ध के दौरान ओजपूर्ण चित्रण भी बेहतर हो पाता है। सिंगापुर से बर्मा और वहाँ से भारत की निकटतम सीमा तक बनी अंग्रेजों की चौकी एवं छावनियों को आजाद हिन्द फौज ने सिंह की भाँति कुचलकर रख दिया। ब्रिटिश सेना बार–बार हारकर मुँह छिपाती रही। आजाद हिन्द फौज के सौ सैनिक अंग्रेजों की हजारों की सेना पर भारी पड़ते थे। मेजर जनरल शहनवाज खान, कैप्टन चन्द्रभान सिंह, कैप्टन अजायब सिंह, लेफ्टिनेंट अमर सिंह, कैप्टन खान मोहम्मद इत्यादि सेनापतियों के साहस देखते ही बनते थे, सभी ने अपनी–अपनी टुकड़ियों के साथ अंग्रेजों की ईंट–से–ईंट बजा दी। कैप्टन मनसुखलाल की हिम्मत अद्भुत थी, शरीर पर सत्रह घाव और तेरह गोलियाँ लगने के बावजूद वे शत्रुओं से लोहा लेते रहे।
लेखक श्रीकृष्ण सरल, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के बारे में कई भ्रम दूर करते हैं। उस समय के नायकों में मतभेद होता था किन्तु मनभेद नहीं होता था। इसका उदाहरण पुस्तक में देखने को मिलता है, कई विषयों पर महात्मा गाँधी और जवाहरलाल नेहरू से नेताजी के मतभेद थे किन्तु मनभेद नहीं। नेताजी जानते थे की हम सभी का उद्देश्य माँ भारती की आज़ादी है। गाँधी और नेहरू के प्रति सकारात्मक भाव प्रकट करते हुए नेताजी ने आजाद हिन्द फौज की एक टोली का नाम गाँधी बिग्रेड और एक का नेहरू बिग्रेड रखा। वहीं महिला बिग्रेड का नाम रानी झाँसी रेजीमेंट था। महिलाओं को आजाद हिन्द फौज का हिस्सा बनाना क्रान्तिकारी कदम था। विश्व भर में उस समय तक प्रगतिशीलता की ऐसी मिसाल नहीं मिलती है।
लेखक श्रीकृष्ण सरल ने सत्य और तथ्य में अपनी निष्ठा बरकरार रखी है। जापान के समर्पण के बाद नेताजी को लेकर उड़ा जापानी हवाई जहाज के बारे में कोई खबर नहीं लगी। नेताजी बोस अंततः कहाँ अंतर्धान हो गए ये कोई नहीं जानता। भारत की आज़ादी और लाल किले पर जवाहरलाल नेहरू के तिरंगा फहराने के साथ लग रहे जय–हिन्द के नारों के साथ ही यह ऐतिहासिक ग्रन्थ समाप्त हो जाता है। अध्ययन के उद्देश्य से लेखक श्रीकृष्ण सरल ने क्रान्तिकारियों एवं आजाद हिन्द फौज के अधिकारियों व सैनिकों के साक्षात्कार करने के लिए वर्ष 1970 में बारह देशों की यात्राएँ निजी व्यय से की थीं, जिनमें सिंगापुर, जापान, मलेशिया, थाईलैंड, बर्मा, हांगकांग, ताइवान, फॉरमोसा,पाकिस्तान, नेपाल की यात्राएँ सम्मिलित हैं।
लेखक श्रीकृष्ण सरल की भाषा सरल एवं सहज है। ऐतिहासिक ग्रन्थों में अमूमन भाषा जटिल होती है किन्तु यह औपन्यासिकता को लिए हुए है इसलिए भाषा बहती हुई चलती है। पाठक भाषा एवं कथानक के प्रवाह में बहा चला जाता है। लेखक ने बहुत अधिक साहित्यिकता नहीं बघारी है अपितु संतुलित मात्रा में साहित्यिक भाषा के आने से रोचकता बनी रहती है और प्रवाह भी नहीं टूटता। लेखक श्रीकृष्ण सरल मूलतः महाकाव्यों एवं खण्डकाव्यों के सफल रचनाकार हैं यही कारण है कि उन्हें प्रबन्धात्मकता और कथानक को बाँधने का विराट अनुभव पहले से है जिसकी कुशलता इस पुस्तक में भी देखने को मिलती है। साहित्य की विभिन्न विधाओं में लेखन करते हुए महाकवि श्रीकृष्ण सरल ने 15 महाकाव्यों सहित कुल 125 ग्रंथों का प्रणयन किया है।
शहीदों व क्रान्तिकारियों पर सर्वाधिक लेखन करनेवाले प्रोफेसर श्रीकृष्ण सरल ने अपनी औपन्यासिक कृति ‘जय–हिन्द’ में खड़ी बोली का प्रयोग किया है किन्तु तत्समयुक्त होने से वे कोसों दूर रहे हैं, जन सामान्य के नेता सुभाषचन्द्र बोस की गाथा उन्होंने जनसामान्य की भाषा एवं शब्दों में ही लिखी है।
भावुक एवं महत्वपूर्ण घटनाओं की पहचान कर पाने में भी लेखक की कुशलता है। नेताजी के तुलादान की घटना को सम्यकता से भाव एवं महत्ता की दृष्टि से संतुलित कर लिया है। नेताजी के जादुई किरदार को वर्णित करने में लेखक सफल रहे हैं।
प्रोफेसर सरल ने इस ऐतिहासिक उपन्यास में कुछ नाट्य शैली की भी गुंजाइश छोड़ दी है। एक तरह से कुल इकतालीस अंक लिखे हैं, जिन्हें आसानी से नाट्य रूपान्तरित भी किया जा सकता है। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस पर यह लेखक की सातवीं कृति आजाद हिन्द फौज तथा नेताजी सुभाषचन्द्र बोस विषय पर श्रीकृष्ण सरल ने 2 महाकाव्यों सहित कुल 18 पुस्तकों की रचना की है। लिखने से पूर्व उन सब स्थानों का, देशों का भ्रमण किया जहाँ–जहाँ नेताजी गए। इससे यह पुस्तक और भी प्रामाणिक एवं महत्वपूर्ण हो जाती है। श्रीकृष्ण सरल ने उन दुर्गम चोटियों को भी नापा जहाँ आजाद हिन्द फौज ने युद्ध लड़े। निश्चित ही इससे श्रीकृष्ण सरल की लेखन और लेखन की प्रामाणिकता के प्रति निष्ठा एवं नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के प्रति भक्ति–भाव देखने को मिलता है। तब भी लेखक की ईमानदारी की प्रशंसा की जानी चाहिए क्योंकि भक्ति–भाव से पुस्तक लिखने पर भी उन्होंने तथ्यों में कोई फेरबदल नहीं किया, जहाँ–जहाँ नेताजी ने थकान महसूस की और आजाद हिन्द फौज युद्ध हारी, उन घटनाओं को लेखक ने ज्यों का त्यों वर्णित किया है। सत्य के साथ लेखक ने कोई समझौता नहीं किया है।
ऐतिहासिक तथ्य एवं सत्य के साथ, भाषा, साहित्य एवं कला–पक्ष को संतुलित कर लेने से ही यह पुस्तक साहित्य एवं इतिहास दोनों क्षेत्रों में बराबर एवं उच्चतम स्थान रखती है। इस तथ्य को सत्यापित करते हुए शेर–ए–हिंद, सरदार–ए–जंग कैप्टन मनसुखलाल ने राष्ट्रकवि प्रोफेसर श्रीकृष्ण सरल के विषय में लिखा –
“एक छोटे–से सिपाही से लेकर सर्वोच्च कमाण्डर नेताजी सुभाषचन्द्र बोस और समस्त हिन्द–आन्दोलन के सबसे बड़े प्रवक्ता श्रीकृष्ण सरल हैं। हम लोगों को तो उन्होंने अमर कर दिया है !"
कर्नल गुरुबख़्शसिंह ढिल्लन तथा कैप्टन मनसुखलाल की उपर्युक्त अभिव्यक्तियों को चरितार्थ करते हुए शहीदों के युग–चारण कहे जानेवाले प्रोफेसर श्रीकृष्ण सरल ने अपने जीवन की अंतिम कृति ‘अक्षर–अक्षर इतिहास’ का विषय भी अपने आराध्य सुभाषचन्द्र बोस को ही बनाया।

धरमवीर सिंह गुर्जर / धरमवीर 'धरम'
शोधार्थी, हिन्दी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय
अध्यक्ष, राष्ट्रीय कवि संगम विश्वविद्यालय इकाई, दिल्ली
साहित्यिक अध्यक्ष, थ्री ए एम क्लब संस्था, ग्वालियर
देश के विभिन्न शहरों में कवि सम्मेलनों में सक्रिय भागीदारी
दिल्ली के विभिन्न महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में कवि सम्मेलनों का आयोजन
वीर रस कवि, मंच संचालक एवं मोटिवेशनल स्पीकर के तौर पर प्रसिद्धि प्राप्त
लेखक ई–परिचय www.shririshnasaral.com/profile/drm
ई-मेल : blog@shrikrishnasaral.com
विशेष सूचना –
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