- डॉ. धर्मेन्द्र सरल शर्मा
‘कला समय’ पत्रिका के दिसंबर 22–जनवरी 23 अंक से साभार
डॉ. धर्मेन्द्र सरल शर्मा का शहीद अशफ़ाक़-उल्ला खा़ँ की पुण्यतिथि पर प्रकाशितआलेख
एवं
गणतंत्र दिवस पर श्रीकृष्ण सरल की कविता ‘नवरस’ से उद्धृत पद्यांश ‘तिरंगे की व्याख्या’
‘कला समय’ कला एवं संस्कृति की देश में अपने तरह की एकमात्र पत्रिका है । 25 वर्षों से प्रकाशित हो रही इस द्वैमासिक पत्रिका की स्थापना ‘संपादक रत्न’ से विभूषित
श्री भंवरलाल श्रीवास ने भोपाल मध्यप्रदेश में की थी ।
https://www.kalasamaymagazine.com/
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वतन हमारा रहे शादकाम और आज़ाद ,
हमारा क्या है, अगर हम रहे, रहे न रहे ।
- अशफ़ाक़-उल्ला खा़ँ
वह दिखने में एक शहज़ादा लगता था । कद्दावर पठानी देह, खिला हुआ गोरा रंग, निहायत खूबसूरत चेहरा, चौड़ी और उभरी हुई पेशानी, आँखों में एक खुशनुमा चमक, चट्टानी सीना और पतली कमर, यह था उसका व्यक्तित्व । कमर और सीने के अनुपात से वह शार्दूल के समान दिखाई देता था । आवश्यकता पड़ने पर दो-एक बार उसे राजकुमार की भूमिका भी अदा करनी पड़ी थी । राष्ट्रकवि श्रीकृष्ण सरल ने अपने महाकाव्य ‘शहीद अशफ़ाक़-उल्ला खा़ँ’ में उसके विचारों की बानगी इन पंक्तियों के माध्यम से दी है –
आज़ादी की लोगों को भीख नहीं मिलती
आज़ादी, दुश्मन से लड़कर ली जाती है,
जिन राहों पर छिड़का जाता है गर्म खून
उन राहों पर चलकर आज़ादी आती है ।
अशफ़ाक़ के बल का अनुमान उसके क्रांतिकारी साथियों को तब लगा, जब काकोरी कांड में रुपयों से भरी हुई तिजोरी किसी से टूट नहीं रही थी । सब निराश हो चुके थे, तो अशफ़ाक़-उल्ला खा़ँ दोनों हाथों में घन लेकर तिजोरी पर पिल पड़ा और उसमें इतनी दरार पैदा कर दी कि हाथ डालकर रुपए निकाले जा सके ।
अशफ़ाक़-उल्ला खा़ँ की मानसिक शक्ति का लोहा लोगों ने तब माना, जब औरों के गिरफ्तार हो जाने पर भी वह पुलिस के हाथ नहीं लग सका ।
अशफ़ाक़ काफी दूरदर्शी भी था । जब पं. रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ के नेतृत्व में ट्रेन डकैती की योजना बनाई गई, तो अन्य क्रांतिकारियों ने उत्साह की झोंक में तत्परता से उसी योजना का समर्थन किया, पर केवल अशफ़ाक़-उल्ला खा़ँ ही एकमात्र क्रांतिकारी था, जिसने उस योजना का विरोध करते हुए कहा था –
“ट्रेन रोककर सरकारी खजाना लूट लेने के कारण क्रांतिकारी दल और ब्रिटिश हुकूमत में सीधा टकराव पैदा हो जाएगा, जो अभी ठीक नहीं है । सरकारी खजाना लूट लिए जाने के कारण वह सरकार को एक खुली चुनौती हो जाएगा और सरकार अपनी पूरी ताकत से हमें मिटाने में जुट जाएगी । ऐसे हालात में हम लोग अपनी आजादी की लड़ाई को आगे बढ़ाने के पहले ही खत्म हो जाएंगे और हमारा मकसद पूरा नहीं हो पाएगा । इसलिए मेरा खयाल है कि हम लोग पहले अपनी बुनियाद को पुख्ता करें और फिर मौका पाकर हुकूमत से सीधे टकराने की बात सोचें । मैं यह भी ज़ाहिर कर देना चाहता हूँ कि मेरे कहने का मतलब यह न लिया जाए कि मैं इस एक्शन से पीछे हटना चाहता हूँ । अगर मेरी बात नहीं मानी गई और ट्रेन डकैती का काम हाथ में लिया गया, तो मैं अपने पूरे जोश के साथ उस में हिस्सा लूँगा ।“
अशफ़ाक़-उल्ला खा़ँ की आशंका निर्मूल नहीं निकली !
सरलजी के शब्दों में –
जिन्दा कौमें अपना हक लड़कर लेती हैं
मुर्दा कौमें माँगतीं, हाथ फैलाती हैं,
मुर्दा कौमें बतियातीं, इंतजार करतीं
जिन्दा कौमें, जो बनता कर दिखलाती हैं ।
उसके चरित्र के सभी पक्ष बहुत उजले थे । गिरफ़्तारी से बचने के लिए वह गणेशशंकर विद्यार्थी का पत्र लेकर बहुत दूर जा निकला, जहाँ गिरफ़्तारियों की सरगर्मी नहीं थी । वह राजस्थान में एक अन्य क्रांतिकारी अर्जुनलाल सेठी के घर पहुँच गया और अपने विषय में सब कुछ सही बता दिया । अर्जुनलाल भी एक सच्चे क्रांतिकारी थे । उन्होंने कहा कि तुम हिंदू नाम धारण करके मेरे परिवार में रहो और यह बात केवल मेरे और तुम्हारे बीच रहेगी । तुम अविनाश नाम से एक व्यायामशाला का संचालन करने लगो ।
अशफ़ाक़ कई दिन सेठी परिवार में रहा और गिरफ्तारी से बचा रहा । सेठी की छोटी पुत्री अशफ़ाक़ के प्रति प्रेम-भाव रखने लगी और उसने अशफ़ाक़ को उससे अपनी शादी का इरादा भी बता दिया। अशफ़ाक़ ने कहा कि इसके लिए तुम्हें अपने पिताजी से ही बात करनी चाहिए । आशा ने अपने पिता को यथार्थ बताया, जिसे सुनकर अर्जुनलाल ने कहा कि यह युवक मुसलमान है और फरार क्रांतिकारी भी है । यदि गिरफ्तार हुआ, तो इसे फांसी की ही सजा होगी । इतना जानकर भी आशा अपने इरादे पर दृढ़ रही।
जब अशफ़ाक़ को आशा के इरादे का पता चला, तो उसने निश्चय किया कि एक सच्चा क्रांतिकारी होने के नाते, न तो मैं किसी को धोखा दूंगा और न ही किसी का जीवन बर्बाद करूँगा । तब सेठी को एक पत्र लिखकर उनका घर छोड़ दिया और बिहार पहुँचकर अशफ़ाक़ लोक-निर्माण विभाग में एक बाबू के पद पर नियुक्त हो गया। अपनी योग्यता के कारण उसने सभी अधिकारियों का दिल जीत लिया और उसको इंजीनियरिंग की उच्च शिक्षा पाने के लिए रूस भेजा जाने लगा । अपना पासपोर्ट बनवाने के लिए जब वह दिल्ली पहुँचा, तो उसके चाचा-जात भाई ने ही इनाम के लालच में उसे गिरफ्तार करा दिया ।
अशफ़ाक़ को तोड़ने की पुलिस के अफसरों ने बहुत कोशिश की, पर वह टस-से-मस नहीं हुआ । पुलिस अधीक्षक एनुद्दीन उसे बार-बार समझाते –
“तुम इन हिंदुओं के बहकावों में क्यों आ गए । ये लोग तो अंग्रेजों को हटाकर अपना हिंदू-राज कायम करना चाहते हैं ।“
एक दिन तंग आकर अशफ़ाक़ ने कह ही दिया, “जनाब आप यह बात मुझसे आइंदा मत कहिएगा । अंग्रेजी-राज से हिंदू-राज कहीं बेहतर होगा और वह इस देश के लोगों का ही राज होगा, जबकि अंग्रेज लोग तो विदेशी हैं ।”
जनाब अधीक्षक महोदय सिटपिटाकर रह गए ।
अशफ़ाक़-उल्ला खा़ँ को अदालत ने फांसी की सजा सुना दी । जनता ने आंदोलन खड़ा किया और फैसले के विरुद्ध की जानेवाली अपील पर अशफ़ाक़ के हस्ताक्षर कराने चाहे । उनका उत्तर था – मैं परवरदिगार खुदाबंद के अलावा और किसी से माफी नहीं मांग सकता ।
एक दिन अशफ़ाक़ के वालिद साहब उसे समझाने फैज़ाबाद जेल में पहुँच गए और माफी मांगने के लिए कई तरह से समझाने लगे । अशफ़ाक़ ने उनसे सवाल किया –“क्या आप मानते हैं कि हिंदू और मुसलमान दोनों ही भारत माता के बेटे हैं ? ”
पिता ने हाँ में उत्तर दिया । इसके आगे अशफ़ाक़ का कथन था –
“हिंदू लोग अपनी कुर्बानियों से यह सिद्ध करते जा रहे हैं कि वे भारत माता के बेटे हैं, क्योंकि एक भी मुसलमान ने अभी तक अपनी कुर्बानी नहीं दी । मैं वह पहला मुसलमान बनना चाहता हूँ, जो अपनी कुर्बानी से यह सिद्ध करेगा कि मुसलमान भी भारत माता के बेटे हैं ।“
अशफ़ाक़ की भावना को कविवर सरलजी अपने शब्दों में कहते हैं –
नौजवान मुल्क के, जो उनसे मेरा कहना
जो आग भरी दिल में, वे उसको धधकाएं,
दिख पड़े जहाँ भी जुल्मो-सितम खाक कर दें
अपनी लपटों से उन्हें करिश्मे दिखलाएं ।
यह उत्तर अशफ़ाक़ के उज्ज्वल चरित्र का कितना बड़ा उदाहरण है । आखिरकार वह 19 दिसंबर 1927 ईस्वी को फैज़ाबाद की जेल में फांसी पर लटका दिया गया । फांसी के पहले उसने एक पत्र द्वारा गणेशशंकर विद्यार्थी को उनके सहयोग के लिए धन्यवाद दिया और अंतिम दर्शन के लिए उन्हें लखनऊ स्टेशन पर बुलाया । अशफ़ाक़ बहुत अच्छा शायर था और उसकी पूरी शायरी देशभक्ति पर ही आधारित थी । उसका यह शेर कितना प्यारा है –
कुछ आरज़ू नहीं है, है आरज़ू फकत यह
रख दे कोई ज़रा सी खाक-ए-वतन कफन में ।
जब अशफ़ाक़ के गले में फांसी का फंदा डाला गया, तो खुदा का नाम लेते हुए वह हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर झूल गया । उसका शरीर मौन और निश्चेष्ट था, पर लग रहा था जैसे एक सदा-सी गूंज रही हो – “मुसलमान भी तो भारत माता की संतान हैं ।“
अशफ़ाक़ और पं. रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ में गहरी दोस्ती थी और वह अपना अधिकांश समय उनके साथ शाहजहांपुर के आर्य समाज मंदिर में ही बिताता था । एक बार दंगाइयों का एक दल आर्य समाज मंदिर तोड़ने के लिए आगे बढ़ा, तो उनकी ओर अपनी राइफल की नाल सीधी करते हुए अशफ़ाक़ गरज उठा –
“मंदिर हो या मस्जिद, वह इबादतखाना होता है और उसके सम्मान की रक्षा हर नागरिक का कर्तव्य होता है । अगर किसी ने आगे कदम बढ़ाया, तो एक-एक को फोड़ कर रख दूंगा ।“
अशफ़ाक़ के विचारों और व्यवहार देखकर हम यह कहने को विवश हो जाते हैं –
यदि सही किस्म के लोग किसी बस्ती में हों
वह बस्ती, बस्ती नहीं स्वर्ग बन जाती है,
यदि सही किस्म के लोग किसी बस्ती में हों
तो ईद-दिवाली साथ-साथ मन जाती है ।
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डॉ. धर्मेन्द्र सरल शर्मा
पुत्र राष्ट्रकवि श्रीकृष्ण सरल
वरिष्ठ लेखक एवं वक्ता - क्रांतिकारी आंदोलन
अध्यक्ष - राष्ट्रीय श्रीकृष्ण सरल साहित्य समिति
पूर्व वाणिज्यिक-कर अधिकारी मध्यप्रदेश शासन
लेखक ई-परिचय www.shrikrishnasaral.com/profile/dr-dharmendra-saral-sharma
email: author@shrikrishnasaral.com
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