top of page
  • Twitter
  • Facebook
  • YouTube
  • Whatsapp
खोज करे

आजाद हिंद फौज के राणा सांगा - कैप्टन मनसुखलाल का साक्षात्कार

अपडेट करने की तारीख: 11 मई 2023

- डॉ. धर्मेन्द्र सरल शर्मा

 
 

साहित्य अमृत ( मासिक पत्रिका ) नई दिल्ली के आज़ादी विशेषांक अगस्त-2022 से साभार

लेखक: डॉ धर्मेन्द्र सरल शर्मा का कैप्टन मनसुखलाल ( आजाद हिंद फौज ) से साक्षात्कार

शीर्षक: नेताजी ने मुझसे हाथ मिलाया और अपनी बाँहों में भींच लिया

 
INA Cap Mansukhlal (Left) with Interviewer - Dr Dharmendra Saral Sharma
INA Cap Mansukhlal (Left) with Interviewer - Dr Dharmendra Saral Sharma

कैप्टन मनसुखलाल को आजाद हिंद फौज ( इंडियन नेशनल आर्मी ) का राणा साँगा कहा जा सकता है। अंग्रेजी सेना से युद्ध करते हुए उनकी देह में तेरह गोलियाँ लगी थीं। इनमें से चार गोलियाँ शरीर के आर-पार हो गई थीं। कुल सत्रह घाव आपके शरीर में बने थे। इनकी बहादुरी देखकर मौत भी इनको प्रणाम करके लौट गई। अंग्रेजों के ‘विक्टोरिया क्रॉस’ के समकक्ष आई.एन.ए. में ‘शेरे हिंद’ के पदक को स्थान दिया जाता था। अदम्य साहस और वीरता के लिए यह किसी भी रैंक के फौजी को दिया जा सकता था। ‘सरदारे-जंग’ नामक तमगा आई.एन.ए. में कुशल नेतृत्व और बहादुरी के लिए सिर्फ अधिकारी वर्ग को ही दिया जाता था। आई.एन.ए. के इतिहास में कैप्टन मनसुखलाल ही एकमात्र ऐसे योद्धा थे, जिन्हें ये दोनों मेडल्स प्रदान किए गए थे। कालजयी नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने अपने हाथों से कैप्टन साहब को ये दोनों तमगे गले में पहनाए थे।

२३ मार्च, १९७५ को कुछ दिनों के लिए कैप्टन मनसुखलाल राष्ट्रकवि एवं सुपरिचित इतिहासकार श्रीकृष्ण सरल के घर पहुँचे थे। सरलजी के पुत्र अनेक साहित्यिक व सामाजिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित एवं सुपरिचित लेखक डॉ. धमेंद्र सरल शर्मा द्वारा कैप्टन साहब से एक सुदीर्घ अंतरंग चर्चा की गई थी। उस बातचीत के कुछ अंश यहाँ ‘साहित्य अमृत’ के पाठकों के लिए प्रस्तुत किए जा रहे हैं।


आपका प्रारंभिक जीवन कहाँ व्यतीत हुआ और आपकी शिक्षा-दीक्षा कहाँ संपन्न हुई? अपने जीवन के पूर्वार्द्ध की कौन-कौन सी बातों को आप अधोरेखांकित करना चाहेंगे।


मैं मथुरा जिले के एक साधारण परिवार में जनमा था। पढ़ना-लिखना मथुरा में रहते हुए ही संपन्न हुआ। जीवनयापन के लिए पहले कुर्क अमीन के पद पर रहा, फिर नायब तहसीलदार बना। इस पद पर सन् १९३७ तक रहा। इसी साल ‘ब्रिटिश आर्मी’ में प्रयोग के तौर पर श्वेतांगों के अलावा कुछ भारतीयों को भी स्थान दिया गया। इस योजना के तहत मुझे भी ‘ब्रिटिश आर्मी’ में जगह दी गई और तत्समय मुझे सिंगापुर भेज दिया गया। मैं सेकेंड लेफ्टिनेंट के ओहदे पर पहुँचने को ही था कि उसी समय दूसरी जंगे-अजीम छिड़ गई। जापान ने ८ दिसंबर, १९४१ को इंग्लैंड और अमेरिका के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। भीषण युद्ध हुआ। ब्रिटेन के दुर्जेय (इंप्रेगनेबल) कहे जानेवाले दो जहाजी बेड़ों ‘प्रिंस ऑफ वेल्स’ तथा ‘रिपल्स’ को जापानियों ने समुद्र के गर्त में पहुँचा दिया।


जमीनी लड़ाई में जापानी सेना के सामने गोरी सेना तो दुम दबाकर भाग जाती थी, लेकिन भारतीय सैनिक आखिरी साँस तक किला लड़ाते थे। जापानी तोपों से जिन सैनिकों को बाँधा जाता था और जिनकी लाशों के लोथड़े उड़ाए जाते थे, वे भारतीय सैनिक ही होते थे। भारतीय सैनिकों को देखकर स्थानीय निवासी भी व्यंग्य कसते थे, ‘एशियावासी होकर भी एशिया के बरखिलाफ लड़ रहे हो?’


इस समय जापान में ‘आजाद हिंद संघ’ की स्थापना हो चुकी थी, जिसकी रहनुमाई रासबिहारी बोस कर रहे थे। ‘आजाद हिंद फौज’ भी इसी इदारे का एक हिस्सा थी। मलाया की सरजमीं पर जापानियों के सामने अंग्रेजी सेना ने हथियार डाल दिए। इसी क्रम में तकरीबन बहत्तर हजार हिंदुस्तानी फौजियों काे जापानियों के हवाले कर दिया गया। मैं भी इनमें शामिल था। आजाद हिंद संघ और रासबिहारी बोस के कारण जापानियों द्वारा गिरफ्तारशुदा भारत के जवानों के साथ नरमी का रवैया अख्तियार किया जाने लगा। आत्मसमर्पण करनेवाली पंजाब रेजिमेंट के कैप्टन मोहन सिंह की भेंट बैंकॉक में रह रहे प्रवासी भारतीय ज्ञानी प्रीतम सिंह से हुई। इन दोनों ने जापानी सेना के कमांडर-इन-चीफ मेजर फूजीवारा से भेंट करते हुए उनका आवश्यक सहयोग लिया। जब आजाद हिंद फौज को आकार मिला, तो मोहन सिंह जनरल पद पर आरूढ़ हुए। उन्होंने मुझे ‘प्लाटून कमांडर’ बनाया। जब नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने आजाद हिंद फौज की कमान सँभाली, उस समय मैं लेफ्टिनेंट के पद पर था और इतिहास प्रसिद्ध इंफाल के युद्ध के समय तक मैं कैप्टन बन गया।


विशाल स्कॉटिश सेना ‘सी-फोर्थ हाईलैंडर्स’ के साथ आपकी छोटी सी टुकड़ी ने भीषण युद्ध करते हुए एक असंभव विजय प्राप्त की थी। यह सब कैसे संभव हुआ?


दरअसल गांधी ब्रिगेड के हाथों दी गई करारी शिकस्त से ‘सी-फोर्थ हाईलैंडर्स’ तिलमिला गए थे। उस सेना के सेनापति ने आई.एन.ए. को इस बार तबाह कर डालने की तगड़ी व्यूह रचना रची। उनके पास बमवर्षक विमानों के अलावा सुसज्जित तोपखाना था और तीन हजार हथियारबंद सैनिक भी थे। इसके विपरीत आई.एन.ए. के सैनिकों की संख्या सिर्फ छह सौ ही थी।


समर की शुरुआत हुई। गोरी सेनाओं ने गांधी ब्रिगेड के कमांडर कर्नल इनायत जान कियानी को विभिन्न दिशाओं से घेर लिया। कर्नल कियानी बड़ी पसोपेश में पड़ गए। अब उनके पास असंभव जैसा दिखनेवाला केवल एक ही विकल्प शेष था और वह यह कि किसी भी तरह से पहाड़ी पर कब्जा किया जाए। कर्नल साहब ने इस मोरचे को फतह करने की जोखिम भरी जवाबदारी मुझे सौंप दी। मेरे लिए यह अग्नि-परीक्षा थी।


कर्नल साहब को मैंने अपने सैनिकों सहित अंतिम साँस तक दुश्मन से लड़ने का वचन दिया। अपने तीस सैनिकों की टुकड़ी को लेकर मैं दबे पाँव शिखर के शीर्ष तक पहुँच गया। शत्रु को हमारी मौजूदगी का भान हो गया। शत्रु ने पहाड़ी की ऊपरी चौकियों से हमारे सैनिकों पर अंधाधुंध गोलियाँ बरसानी शुरू कर दीं। हमारे जवान वीरगति को प्राप्त होते जा रहे थे। उनकी संख्या धीर-धीर घटने लगी। मैंने शेष बचे सैनिकों को समझाइश दी। अब वे छोटी-छोटी टुकड़ियों में विभक्त हो गए और भिन्न-भिन्न दिशाओं में जाकर ‘भारत माता की जय’ और ‘जयहिंद’ के नारे पूरी ताकत के साथ लगाने लगे। अब गोरे सैनिकों के मन में यह बात घर कर गई कि आई.एन.ए. के फौजियों की संख्या बहुत अधिक है। इस विचार ने गोरी सेना के मनोबल पर प्रतिकूल प्रभाव डाला।


मैं अपने बहादुर सैनिकों का नेतृत्व करते हुए आगे रहकर शत्रु का सामना कर रहा था। अब दुश्मन ने सोचा कि यदि मुक्ति-वाहिनी के कप्तान को ही ढेर कर दिया जाए तो बची-खुची सेना स्वतः ही टूटती और बिखरती चली जाएगी। कुछ गोलियाँ मेरे शरीर को भेदती हुई आर-पार हो गई थीं और कुछ गोलियाँ मेरी देह में बिंधकर रह गई थीं। मुझ पर वतनपरस्ती का नशा पूरी तरह से तारी था। मेरे कदम आगे की ओर बढ़ते चले जा रहे थे। यह सब देखकर हमारे सैनिकों का हौसला दो गुना हो गया और वे पूरे बल के साथ शत्रु पर टूट पड़े। मेरा जिस्म अब तक तेरह गोलियाँ झेल चुका था। पूरा शरीर रक्त से सन चुका था। जब मैं श्लथ होकर जमीन पर गिरने लगा, तो मेरे कुछ जवानों ने मुझे सँभालने के लिए सहारा देने का प्रयास किया। मैं उन लोगों पर गरज पड़ा, “मेरी चिंता छोड़ो और लपककर पहाड़ी पर कब्जा करो। युद्ध में एक व्यक्ति के मरने या बचने से कुछ बनता-बिगड़ता नहीं है। मुझे मेरे भाग्य पर छोड़कर तुम पहाड़ी पर कब्जा करो। मैं न बच सका तो क्या? पहाड़ी पर अधिकार करने से पूरी ब्रिगेड बच जाएगी।”


यह गर्जना सुनकर सभी सैनिक अपरिमित उत्साह से सराबोर हो गए। ‘जयहिंद’ और ‘नेताजी की जय’ के घोष के साथ वे लपक-लपककर गोरी सेना के सैनिकों के सीनों में संगीन उतारने लगे। गोरों ने अब पहाड़ी छोड़कर भाग जाने में ही अपनी खैर समझी। सामरिक दृष्टि से अत्यंत उपयोगी वह चोटी अब आजाद हिंद फौज के आधिपत्य में आ चुकी थी। इस घमासान युद्ध में ढाई सौ गोरे सैनिकों की लाशें रणक्षेत्र में बिछी थीं। तुलनात्मक दृष्टि से गोरे सैनिकों की तुलना में इंडियन नेशलन आर्मी के वीरगति पानेवाले योद्धाओं की संख्या बहुत कम थी। दूसरी ओर कर्नल कियानी ने कैप्टन राव की रक्षा के लिए लेफ्टिनेंट अजायब सिंह को भेजा। उन्होंने भी अंग्रेजों की सेना को खदेड़ने में कामयाबी हासिल कर ली।


जब तेरह गोलियाँ लगने से आप मरणासन्न स्थिति में पहुँच गए थे, तब आपके अधीनस्थ सैनिकों के साथ आपका क्या वार्त्तालाप हुआ?


विजित पहाड़ी चौकी के एक बड़े से पत्थर पर अपनी पीठ टिकाकर मैं बैठा हुआ था। मेरे जवान हर पल मेरा ध्यान रख रहे थे। मेरे शरीर से बहुत सारा खून बह चुका था और कई स्थानों पर मांस भी बहुत स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा था। मैं निरंतर मृत्यु की ओर अग्रसर हो रहा था। मैंने अपनी पूरी ताकत लगाकर अपनी रायफल को उठाया और सामने खड़े सैनिकों को सौंप दी। मैंने उनको हुक्म दिया—


“नेताजी द्वारा दिए गए काम को मैं अपना सर्वस्व दाँव पर लगाकर पूरा कर चुका हूँ। मुझे अब मरना तो है ही। तड़प-तड़पकर मरने से बेहतर तो यह होगा कि मैं आप लोगों की गोलियों से शांति से मरूँ। वैसे भी जंग में मरते हुए सैनिक को चैन से मरने के लिए गोली मार दी जाती है। ऐसा इसलिए भी किया जाता है कि उस सैनिक के मुँह से बदहवासी में कहीं ऐसी कोई बात न निकल जाए, जो शत्रु के लिए लाभकारी हो। मैदान-ए-जंग में मेरी शहादत मुझे वीरगति ही दिलाएगी। तुम्हारे कैप्टन की हैसियत से मैं तुम्हें आदेश देता हूँ कि उठाओ रायफल और चलाओ मुझ पर गोलियाँ!”


मेरे जवानों ने हुक्म-अदूली कर दी और मुझ पर गोलियाँ चलाने से इनकार कर दिया। वे मुझे जिंदा रखकर बहादुरी और हिम्मत की नजीर पेश करना चाहते थे। मेरी सेवा-शुश्रूषा करके उन लोगों ने मुझे मरने से बचा लिया, परंतु मुझे उस समय देशभक्ति के सर्वोच्च पुरस्कार वीरगति से वंचित होने का अफसोस हो रहा था।


दुर्गम पहाड़ी चौकी पर विजय प्राप्त करने और मृत्यु को मात देने के बाद क्या आपका फिर से मौत से साक्षात्कार हुआ?


अपने सैनिकों से प्राथमिक उपचार कराकर मैंने उन्हें यह जता दिया कि मैं अब पहले से बेहतर हूँ और कुछ समय में ठीक हो जाऊँगा। अपने अभियान के विषय में आगे रिपोर्ट करने का आदेश देकर मैंने उन लोगों को विदा कर दिया। मौत के साथ मेरे जीवंत साक्षात्कार की निरंतरता अभी टूटी नहीं थी। पल-पल मेरी मृत्यु से मुलाकात होती रही।


गोलियों की अधिकता से मेरे जिस्म पर जख्म भी खूब बन चुके थे। एक-एक जख्म मुझे तमगे जैसा दिखाई दे रहा था। घावों में धीरे-धीरे कीड़े पड़ गए। वे कभी मेरे खून से अपनी प्यास बुझाते थे, तो कभी मेरे मांस से अपनी क्षुधा शांत करते थे। यह सब कष्ट सहन करना मेरी लाचारी थी। असहनीय पीड़ा सहते-सहते मेरे धैर्य की सीमा भी बढ़ने लगी। वह मेरा देशप्रेम ही था, जो मुझे मृत्यु की छाया में भी जीवित रखे हुए था।


मेरे बे-इरादा कदम एक अंजान मंजिल की तरफ ठेलते हुए मुझे ले जा रहे थे। अब एक बर्फीली नदी मेरे सामने रास्ता रोके खड़ी थी। वह मुझ से कुछ नेग माँग रही थी। उसे देने के लिए मेरे पास अपने प्राणों के सिवाय कुछ भी नहीं था। नदी का पानी कमर से कुछ ऊपर तक था, लेकिन उसका वेग बहुज तेज था। साहस जुटाकर मैं पानी में उतर गया। ठंडे पानी के स्पर्श से मेरा चेहरा लाल पड़ गया। ऐसा लगा, जैसे दरिया ने मेरा नाम पूछ लिया हो। भूख से उपजी थकान से मैं निढाल हो चुका था। बर्फीला पानी घावों के भीतर पहुँचकर गहरी टीस दे रहा था। मेरे निकट से कुछ देहाती गुजर रहे थे। वे भी दरिया के पार जा रहे थे। मेरी दशा देखकर उन लोगों ने भाँप लिया कि मुझे नदी के दूसरे छोर तक पहुँचना है। उनके पास एक बैल था। उन्होंने मुझे उस बैल की पूँछ पकड़वा दी। मुझे गाय की पूँछ पकड़कर वैतरणी पार करने की बात याद आ गई। कभी नदी की तलहटी के गोल और नुकीले पत्थरों से मेरे शरीर का संतुलन डगमगा जाता, तो कभी पानी के तीव्र वेग के कारण बैल की पूँछ छूटने लगती। पार लगने के प्रश्न को लेकर मन में संशय उठने लगे थे। जैसे-तैसे मैं पार लग ही गया। छुपा-छुपाई के खेल के बाद मौत ने एक बार फिर से मुसकराते हुए मुझे आगे बढ़ने के लिए विदा कर दिया। पहाड़ी रास्तों और घने जंगलों का तजुर्बा तो मुझे हो ही चुका था। इस बार काल स्वरूपा वह नदी भी मुझे परीक्षा में उत्तीर्ण कर चुकी थी। अब मुझे एक नई तकलीफ का सामना करना पड़ा। चिचिलाती धूप में लगातार चलते-चलते मैं पसीने से नहाने लगा। इस बार मेरे जख्मों ने पसीने की छुअन का स्वाद चखा। ऐसा लगा, जैसे किसी ने मेरे घावों पर नमक छिड़क दिया हो। उस पूरे अभियान में मुझे कुछ हिंदी मुहावरों के अर्थ अच्छी तरह से समझ में आ गए थे। अब ऐसा कोई सा दर्द नहीं बचा था, जो मेरी सामर्थ्य से बाहर हो।


वह कौन सी शक्ति थी, जिसने आपको अपने गंतव्य तक पहुँचाया? गंतव्य तक पहुँचने के बाद और क्या-क्या घटित हुआ?


मेरे ही क्या, आजाद हिंद फौज के हर सैनिक के दिल में नेताजी सुभाषचंद्र बोस के चट्टानी इरादों की ताकत भरी हुई थी। उनका ‘जयहिंद’ का नारा हमारे भीतर एक अद्भुत शक्ति का संचार कर देता था। नेताजी का व्यक्तित्व जादुई था। चार जुलाई उन्नीस सौ चवालीस की बात है; वे अपने सैनिकों से कहने लगे—“तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा।” आगे उन्होंने कहा, “दूर जंगलों, पहाड़ियों, नदियों-नालों में होकर दुर्गम रास्तों से पैदल मार्च, भूख, प्यास और आखिर में मौत। यही मातृभूमि की स्वतत्रंता की कीमत है और यही है हमारा पुरस्कार।”


मेरी राम-कहानी नेताजी तक पहुँच चुकी थी। मेरी देखभाल के लिए उन्होंने अस्पताल तक अपने विशेष निर्देश पहुँचा दिए थे। रंगून के एक फौजी अस्पताल में मैं पहुँचा, तो डॉक्टर को मेरे जीवित होने पर बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने दवाइयाँ देने और अच्छी तरह से मरहमपट्टी करने के बाद नेताजी काे सूचना दे दी।


अब मैं आपे जीवन के सर्वाधिक रोमांचकारी पलों के विषय में जानना चाहता हूँ।


कुछ अरसे के बाद एक काली चमचमाती हुई कार अस्पताल के परिसर में आकर रुकी। मुझे उस कार में बैठकर नेताजी से मिलने जाना था। मैं फौजी का लिबास पहनकर नेताजी से मिलने कार में बैठकर रंगून स्थित फौजी मुख्यालय पहुँच गया। जब नेताजी मेरे सामन आए, वे मिलिट्री यूनिफॉर्म में थे। उन्हें अचानक सामने देखकर मैं अवाक् रह गया। न तो मेरे मुँह से ‘जयहिंद’ निकला और न ही मैं उन्हें सैल्यूट कर पाया। नेताजी के मुखमंडल पर एक दैवीय मुसकान फैल गई। नेताजी ने मुझसे हाथ मिलाया और अपनी बाँहों में भींच लिया। वे धीर-धीरे मेरी पीठ पर थपकियाँ देकर मुझे शाबाशी देने लगे। हम दोनों निश्शब्द थे। मेरे आँसू नेताजी के कंधों पर गिर-गिरकर अपनी कथा-व्यथा कह रहे थे और नेताजी के आँसू मेरे कंधों पर गिर-गिरकर मेरी इस अभिव्यक्ति को स्वीकारोक्ति दे रहे थे। अब हम दोनों एक-एक कदम पीछे हटे। नेताजी के अधरों से अब मेरी प्रशंसा में शब्द प्रस्फुटित होने लगे। यह मेरे लिए एक सपने जैसा था।


जिस प्रकार ब्रिटिश आर्मी में सबसे बड़ा सैनिक सम्मान ‘विक्टोरिया क्रॉस’ होता है, उसी प्रकार आई.एन.ए. के फौजियों के लिए सबसे बड़ा सैनिक सम्मान ‘शेरे-हिंद’ होता था। यह किसी भी वर्ग के फौजी को दिया जा सकता था। ‘सरदारे-जंग’ नामक तमगा केवल अधिकारियों को दिया जाता था। आई.एन.ए. में केवल मैं अकेला ऐसा फौजी था, जिसे नेताजी ने ये दोनों तमगे पहनाए थे।


अब तक नेताजी अपने सैनिकों से खिताब करते हुए शहीद भगत सिंह की देशभक्ति की मिसाल अपने भाषणों में दिया करते थे। अब वे शहीदे-आजम भगत सिंह के नाम के बाद मेरे नाम का भी उल्लेख करने लगे। इससे बड़ा सम्मान और पुरस्कार मेरे लिए कुछ और नहीं था।

 

डॉ. धर्मेन्द्र सरल शर्मा

पुत्र - राष्ट्रकवि श्रीकृष्ण सरल

वरिष्ठ लेखक एवं वक्ता - क्रांतिकारी आंदोलन

अध्यक्ष - राष्ट्रीय श्रीकृष्ण सरल साहित्य समिति

+91 953 7060 794 | भोपाल - 462 039

 





276 दृश्य1 टिप्पणी

हाल ही के पोस्ट्स

सभी देखें

1 Comment


Apurva SARAL
Apurva SARAL
Aug 23, 2022

कैप्टन मनसुख लाल एक तथ्यपरख लेख़ (साक्षात्कार) पढ़ने का अवसर उपलब्ध कराने के लिए आभारी हूँ 🙏👏🇮🇳

Like

© website by -

Ms Apurva Saral [ London ]

Daughter of Dr Dharmendra Saral Sharma

[ Granddaughter of Shri Shrikrishna Saral ]

© वेबसाइट निर्माण -

सुश्री अपूर्वा सरल [ लंदन ]

पुत्री डॉ धर्मेन्द्रसरल शर्मा

[ पौत्री श्री श्रीकृष्ण सरल ]

  • Youtube
  • Facebook
  • Twitter
bottom of page