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सरलजी भविष्य हैं, अतीत नहीं

अपडेट करने की तारीख: 25 दिस॰ 2024

-नर्मदाप्रसाद उपाध्याय

' सरल-कीर्ति ' ब्लॉग शृंखला के इस अंक में प्रस्तुत है

प्रख्यात कलाविद् एवं ललित निबन्धकार

श्री नर्मदाप्रसाद उपाध्याय द्वारा रचित पुस्तक ‘अस्ताचल के सूर्य

संस्करण–2006 में प्रकाशित लेख पृष्ठ 29-33 से साभार

शीर्षक : सरलजी भविष्य हैं, अतीत नहीं | लेखक : श्री नर्मदाप्रसाद उपाध्याय


सरलजी भविष्य हैं, अतीत नहीं


कठिन और सरल दोनों विरोधाभासी हैं, विपरीत ध्रुवों पर खड़े हुए शब्द। किंतु तथ्य यह है कि सरल बन जाना कठिन होकर ही होता है। बिना कठिन संघर्ष के सरल होने की राह नहीं मिलती। आज दुनिया में जाने कितने तथाकथित सरल हैं, बोलचाल में, पहनावे में, प्रदर्शन में, लेकिन वास्तविकता यह है कि ये सरल कतई नहीं हैं। ये वे हैं जो सरल की व्यंजना को भी क्रूर चतुराई के साथ भुना लेने को तत्पर हैं। सरल होना बहुत कठिन है। और इसीलिए जितने अवतारपुरुष हैं, महापुरुष हैं, जिनकी सरलता हमारे जीवन में संस्कारों के रूप में ढालने की कोशिश की जाती है, वे बहुत कम हैं। गिनेचुने हैं, इतिहास में, वाङ्मय में, तमाम तरह के अनुशासनों में । कृष्ण जैसे सरल होने से कठिन कोई दूसरी साधना नहीं है और यह इतिहास में शायद इकलौता विरल उदाहरण है कि स्वर्गीय श्रीकृष्ण सरल, कृष्ण जैसी कठिन साधना और अध्ययन के बल पर सांदीपनि की इस महान नगरी उज्जयिनी में अपने जीवन के अंत तक सरल की सार्थक व्यंजना का प्रतिनिधित्व अपने व्यक्तित्व और कृतित्व के माध्यम से करते रहे।श्रीकृष्ण सरल केवल सर्जक नहीं थे क्रान्ति काव्यों के, बल्कि अपने आपमें कान्तिमय क्रान्तिपुरुष थे। उन्होंने बलिदानियों और बलिदानों को विस्मृत कर देने की क्रूर परिपाटी को अपने इकलौते पौरुष से तोड़ा। कोई उनका साथी नहीं था, कोई उन्हें प्रोत्साहित करनेवाला नहीं था, कोई ऐसा नहीं था जो महान भारतीय क्रान्तिकारियों के इस आत्माभिमानी चारण के स्वाभिमान की वन्दना करता। मैंने अपने अभी तक के जीवन में चारों दिशाओं के बीच अनवरत दीप्तिमान रहने वाले सूर्य और कान्तिमान रहने वाले चन्द्र की साक्षी में स्वर्गीय श्रीकृष्ण सरल जैसा महान कठिन व्यक्तित्व नहीं देखा। जब भी देखा उन्हें अकेला देखा। आयोजकों और आयोजनों की भीड़ में वे कभी शामिल नहीं हुए। उनकी निस्संग साधना उन्हें सिर्फ प्रयोजन से जोड़े रही। भारतवर्ष की तमाम भाषाओं के इतिहास में यह सत्य सदैव दर्ज रहेगा कि श्रीकृष्ण सरल ने वह लिखा जो किसी और ने नहीं लिखा, उन्होंने उन बलिदानियों के शौर्य की अमरगाथा गाई, जिनके कारण इस देश के स्वाभिमान की अस्मिता बन सकी। वे अकेले ऐसे युग सर्जक थे, जिन्होंने युगों को सजानेवालों की अमरगाथा गाकर अपने युग को सर्जना के भव्य और गौरवशाली आयाम सौंपे।

 

श्रीकृष्ण सरल दिवंगत नहीं हुए, उन्होंने भी अपने जीवन की बलि दी और उस स्वाभिमान का एक और कीर्ति स्तंभ इतिहास पथ पर स्थापित कर दिया, जिस स्वाभिमान के कारण इस देश के शौर्य की समूचे विश्व में अप्रतिम प्रतिष्ठा है। 

 

सरलजी की जाने कितनी स्मृतियाँ मनमानस में हैं। नवीं कक्षा का जब मैं छात्र था, तब वे हरदा में मेरे स्कूल में आए थे। उनके ओजस्वी व्याख्यान की झनझनाहट आज तक मौजूद है। तब मैंने देखा था कि एक साधक का संघर्ष कैसा होता है? वे अपनी पुस्तकें स्वयं प्रकाशित कर उन्हें स्वयं बेचते थे। उस राशि से फिर नया ग्रन्थ, बलिदानी की नई गाथा लिखते थे। तब उन्होंने नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के, भगत सिंह और चन्द्रशेखर आजाद के संस्मरण सुनाए थे। उसके बाद उन्हें कई बार देखा। उनके पास बैठने का सान्निध्य बहुत कम मिला, लेकिन जितना भी मिला वह मेरे जीवन की अनमोल धरोहर है। वे मेरे निकट के रिश्तेदार भी थे। वे अशोकनगर में जन्मे थे और अशोकनगर मेरी ससुराल है तथा मेरे ससुराल पक्ष के वे निकटतम व्यक्तियों में से एक थे। इसलिए उनके पास वे ढेर सारे संस्मरण थे, जो उनके आरंभिक यात्रा–पथ को रेखांकित करते थे। वे बड़े सहृदय, निष्कपट, मृदुभाषी और दंभहीन व्यक्ति थे। उनका महान यश और उनकी साधना कहीं से कहीं तक आक्रांत नहीं करती थी। यह मेरा सौभाग्य है कि मैंने अपने जो भी संग्रह उन्हें भेजे, उन पर उन्होंने बड़ी सकारात्मक टिप्पणियाँ भेजीं और मेरा उत्साहवर्धन किया। उज्जैन में आने पर जब भी मैं उनसे मिला, तो हृदयरोग से पीड़ित होते हुए भी वे देर तक मुझसे चर्चा करते रहे, मुझे मार्गदर्शन देते रहे।

 

उन्होंने 125 से अधिक ग्रन्थों की रचना की जिनमें 56 काव्य–कृतियाँ और 74 गद्य–रचनाएँ शामिल हैं। 18 प्रबंध काव्यों में 15 महाकाव्य हैं और 3 खण्डकाव्य। अपने जीवन के संध्याकाल में उन्होंने राम के जीवन की झाँकी को ‘सरल–रामायण’ महाकाव्य के रूप में संजोया। उनकी प्रतिभा बहुआयामी थी। उन्होंने कहानी, उपन्यास, एकांकी, जीवनी और निबन्ध लिखे। भारतीय क्रान्तिकारियों की जीवनियों पर उन्होंने महान कार्य किया तथा लगभग 2,000 क्रान्तिकारियों की जीवनियों को अपने मौलिक शोध–कार्य में सम्मिलित करते हुए ‘क्रान्ति–कथाएँ’ नाम का एक महान ग्रन्थ लिखा। अकेले नेताजी सुभाषचन्द्र बोस पर उन्होंने 18 ग्रन्थ लिखे। अपने जीवन के संध्याकाल में उन्होंने ‘विवेक–श्री’, ‘तुलसी–मानस’, ‘सरल–रामायण’, ‘सरल–सीतायन’ तथा  ‘महाबली’ जैसे आध्यात्मिक महाकाव्य लिखकर उस ईश्वर के चरणों में भी अपनी कृतज्ञता ज्ञापित कर दी, जिसने उन्हें अपनी अथक साधना के बल पर एक ऐतिहासिक सर्जक बनाया।

 

उन्होंने अपने काव्य–लेखन का उद्देश्य बल्कि जीवन का उद्देश्य इन पंक्तियों में व्यक्त किया है –

 

क्रान्ति के जो देवता, मेरे लिए आराध्य,

काव्य साधन मात्र, उनकी वन्दना है साध्य ।

 

ये दो पंक्तियाँ उनके पूरे जीवन के कृतित्व को परिभाषित करती हैं। सरलजी का पूरा जीवन एक सच्चे देशभक्त का आदर्श जीवन था। उन्हीं की पंक्तियाँ हैं –

 

जो उठाए इस हमारी मातृ–भू पर आँख

रोष की ज्वाला बने हर फूल की हर पाँख,

भूल कर भी जो छुए, इस देश का सम्मान

कड़कती बिजली बने हर कली की मुस्कान।

 

उनके काव्य में कहीं से कहीं तक दैन्य नहीं है, अकिंचनता नहीं है, दास्यभाव या पराश्रयता नहीं है, बल्कि वह गहरे आशावाद का काव्य है। उसमें काव्य–तत्त्व की शास्त्रीय खोज करना बेमानी है क्योंकि वह काव्य अमर शहीदों की उस प्रवहमान जीवनगाथा का काव्य है, जिसने कभी बंधनों में बँधना स्वीकार नहीं किया, तो फिर उस गाथा के लेखक को बंधन कैसे स्वीकार होंगे? इसलिए स्वर्गीय सरलजी का काव्य गहरे आशावाद का प्रवहमान काव्य है। वह शहीदों के जीवन–मूल्यों को उद्घाटित करता है, स्थापित करता है और संस्कारों के रूप में वे पीढ़ी–दर–पीढ़ी कैसे हर नवयुवक के जीवन में समाविष्ट होते जाएँ, इसके लिए प्रतिबद्ध रहता है। भगत सिंह के बलिदान पर उन्होंने लिखा –

 

स्वर्ग भी है जिस धरा के सामने अति रंक

वो सभी की माँ हमारी, ले रही वह अंक,

व्यर्थ जाएगा नहीं माँ ! एक यह बलिदान

है निकट स्वाधीनता का सुखद पुण्यविहान।

 

यही स्वर सुभाषचन्द्र बोस से लेकर शहीद अशफ़ाक़-उल्ला खा़ँ पर लिखे गए काव्यों में मुखर हुआ है। यह एक सुखद तथ्य कहा जाएगा कि सरलजी स्वयं अपना काव्य आजीवन अपने स्वयं के संसाधन जुटाकर प्रकाशित कराते रहे, अपने जीवन के अंत में उन्हें वह अवसर देखने को मिला, जब उनके ‘क्रान्ति–कथाएँ’ ग्रन्थ को देश के प्रतिष्ठित प्रकाशन संस्थान प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली ने 5 खण्डों में हिन्दी तथा अंग्रेजी भाषा में अनूदित कर प्रकाशित किया। स्वर्गीय श्रीकृष्ण सरल के अवदान को याद करते समय यह तथ्य विचारणीय होना चाहिए कि भारतीय क्रान्तिकारियों के संदर्भ में तथा उनकी व उनकी पूर्ववर्ती क्रान्ति–परंपरा के बारे में जो कुछ भी लिखा गया है, उस लेखन को ज्यादा से ज्यादा पढ़ा जा सके, इसके लिए क्‍या किया गया या क्‍या किया जा सकता है? माखनलाल चतुर्वेदी हों, सुभद्रा कुमारी चौहान हों, दिनकर हों, मन्मथनाथ गुप्त हों या श्रीकृष्ण सरल, क्‍या यह तथ्य विचारणीय नहीं है कि हमारे विशाल साहित्यिक जगत ने इन महान कवियों और लेखकों के साहित्य को अधिक से अधिक प्रचारित और प्रसारित करने के लिए क्‍या किया? इसलिए कि मैं मानता हूँ कि साहित्यिक सर्जक का दायित्व सिर्फ इतना भर नहीं है कि वह अपने सृजन के संबंध में ही संवेदनशील रहे, अपितु उसका यह भी दायित्व है कि वह उस साहित्य का अधिक से अधिक प्रचार–प्रसार करे, जो कहीं हमारे देश की पीढ़ी को ऊर्जा का सन्देश देता है और उसे देश के निर्माण के लिए उस अतीत का स्मरण कराता है, जिस अतीत के कारण भारत की स्वर्णिम परिभाषा बनती है। क्या किया गया? यह अब उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है। इसलिए कि कोसने से कुछ नहीं होगा। महत्त्वपूर्ण यह है कि क्‍या किया जा सकता है? मैं क्या किया जा सकता है के विस्तार में जाना नहीं चाहता, इसलिए कि मैं चाहता हूँ कि इतने बड़े रचनात्मक यज्ञ की वेदी में प्रत्येक सर्जक अपने रचनात्मक विचार की समिधा डाले ताकि अधिक से अधिक करने के संदर्भ में अधिक से अधिक दिशाओं की खोज हो सके। मेरे अल्पमत में इतना तो किया ही जा सकता है कि साहित्य से जुड़े हुए रचनाकर्मी और पाठक इसे अपना व्यक्तिगत दायित्व समझें ओर क्रान्ति–साहित्य को अधिक से अधिक एकत्रित करते हुए उसे आम पाठकों के लिए उपलब्ध कराएँ। यह हो सकेगा, इसलिए कि यह व्यावहारिक है और इस कृत्य को अपना दायित्व समझने वाले इसके कारण कहीं अपनी रचनात्मक संकल्प–शक्ति को समृद्ध करेंगे और अपने स्वाभिमान को प्रखर बनाएँगे। मेरे मत में क्रान्ति–साहित्य एक सच्चे रचनाधर्मी के स्वाभिमान को जीवंत बनाए रखता है । क्रान्ति–साहित्य न तो प्रतिगामी साहित्य होता है और न ही किसी विशिष्ट खेमे में रखकर उसका आकलन किया जा सकता है। यशपाल जैसे विशिष्ट विचारधारा के पोषक, सर्जक भी जब लिखते हैं तो आम पाठक को उनकी प्रतिबद्धता के बारे में कम सरोकार होता है, ज़्यादा सरोकार होता है तो उस सामग्री से जो यशपाल अपनी कृति में सँजोते हैं। इसलिए इस साहित्य के बारे में नए सिरे से सोचा जाना आवश्यक है। क्रान्ति–साहित्य का अध्ययन बहुत सीमित हुआ है। विश्वविद्यालयों में शोध–कार्य हुए हैं, जिनका उद्देश्य भिन्‍न है। ग्रन्थालयों में ग्रन्थ रखे हैं, अकादमियों के गोदामों में ये पुस्तकें रखी हैं या उन विभागों के भंडारगृहों में रखी हैं, जिनका दायित्व इस साहित्य का प्रचार–प्रसार करना है, लेकिन ये सब अपने उद्देश्य में विफल हैं। हमारे समृद्ध क्रान्ति–साहित्य में बल्कि सरलजी के ही साहित्य में नाटक हैं, जिनका मंचन किया जा सकता है। उनके काव्य में दृश्य प्रस्तुतीकरण की इतनी असीम संभावनाएँ हैं कि उन्हें प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया जा सकता है, उनके साहित्य में इतनी रोचक कथात्मकता है कि उसे हर वर्ग के लोगों तक बड़ी आसानी से छोटे स्वरूप में पहुँचाया जा सकता है, किंतु इसके लिए संकल्प–शक्ति चाहिए, पराश्रयता नहीं चाहिए और यह तर्क भी नहीं चाहिए कि यह दायित्व साहित्यकार का नहीं है। काव्य–गोष्ठियाँ, विभिन्‍न प्रसंगों में होती हैं, समीक्षा–गोष्ठियाँ होती हैं, पुस्तकों के विमोचन समारोह होते हैं, विश्वविद्यालयों में समय–समय पर कई तरह के पाठ्यक्रम निर्धारित होते हैं, अकादमियाँ व्याख्यान आयोजित करती हैं और भी जाने कितने तरह के आयोजन विभिन्‍न विधाओं में लिखी जा रही कृतियों को लेकर किए जाते हैं और यह सब जानते हैं कि इनकी परिधि कितनी सीमित है। आवश्यकता सिर्फ इतनी है कि कम से कम उस साहित्य को अपनी निजता के घेरे से ऊपर उठकर प्रचारित ओर प्रसारित करने का संकल्प लिया जाए, जो साहित्य देश के लिए, उस देश पर मर मिटनेवालों के नाम पर लिखा गया और ऐसे बलिदानियों की तरह ही सरलजी जैसे लोग जिसके लेखक रहे, जिनकी कभी कोई निजी आकांक्षा नहीं रही। ऐसे आकांक्षाहीन सर्जक जिन्होंने जीवनभर केवल क्रान्तिदूतों के गीत गाए, यदि उनके कृतित्व के प्रचार और प्रसार के लिए सर्जक ही संगठित हो कोई संकल्प लेते हैं, तो इससे बड़ी कोई श्रद्धांजलि स्वर्गीय सरलजी के प्रति नहीं हो सकती।

 

स्वर्गीय श्रीकृष्ण सरल ऐसे अपराजित योद्धा थे, जिन्होंने अकेले अपने पौरुष के बल पर महाभारत लड़ा और वे सदैव ऐसे अपराजित योद्धा के रूप में स्मरण किए जाते रहेंगे, जिन्हें न तो कोई चुनौती पराजित कर सकती है और न ही जिन्हें समय अतीत कहकर विस्मृत कर सकता है, क्योंकि वे अतीत होकर भी वर्तमान हैं और वर्तमान होकर भविष्य की पीढ़ियों के लिए समर्पण के नए छंद रच रहे हैं।

नर्मदाप्रसाद उपाध्याय

कलाविद् एवं ललित निबन्धकार

सेवानिवृत्त अपर आयुक्त, वाणिज्यिक कर, मध्यप्रदेश

विगत 45 वर्षों से निबंध, व्यंग्य, लघुकथाएँ, समीक्षाएँ लेखन में संलग्न

ब्रिटिश काउंसिल की फैलोशिप के तहत इंग्लैंड में एवं ऑस्ट्रेलिया में

भारतीय लघुचित्रों का अध्ययन, प्रदर्शन तथा व्याख्यान

पुरस्‍कार: लोकनायक जयप्रकाश नारायण स्मृति राष्ट्रीय सम्मान

मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी द्वारा कुबेरनाथ राय पुरस्कार

मध्यप्रदेश साहित्य परिषद द्वारा मुकुटधर पांडेय पुरस्कार

उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान के 'कलाभूषण' सम्मान 

विशेष सूचना –

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