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श्रीकृष्ण सरल कृत प्रबंध काव्य ‘अजेय सेनानी–चंद्रशेखर आज़ाद’ राष्ट्र चेतना का जीवंत अभिलेख

अपडेट करने की तारीख: 11 मई 2023

- डॉ. पुरुषोत्तम पाटील

 

' सरल-कीर्ति ' ब्लॉग शृंखला के इस अंक में प्रस्तुत है डॉ. पुरुषोत्तम पाटील का लेख

ग्वालियर साहित्य संस्थान, मध्यप्रदेश द्वारा प्रकाशित ‘लोकमंगल पत्रिका’ के

अंतर्राष्ट्रीय साहित्य संगोष्ठी विशेषांक, स्वाधीनता और साहित्य से साभार

शीर्षक : राष्ट्रकवि श्रीकृष्ण ‘सरल’ का प्रबंध काव्य ‘अजेय सेनानी–चंद्रशेखर आज़ाद’ राष्ट्र चेतना का जीवंत अभिलेख

 
 

‘अजेय सेनानी चंद्रशेखर आज़ाद’ नामक अपने प्रबंध काव्य के माध्यम से राष्ट्रकवि श्रीकृष्ण सरल ने महान क्रांतिकारी,स्वतंत्रता सेनानी, राष्ट्रवीर चंद्रशेखर आज़ाद के जीवन पट को हमारे सामने जस का तस उपस्थित करने का प्रयास किया है। उनके इस ग्रंथ के माध्यम से क्रांतिकारी सेनानी चंद्रशेखर आज़ाद के जन्म से लेकर तो उनके बलिदान तक, जीवन के विभिन्न पड़ावों को श्री सरलजी ने परत दर परत हमारे सामने उघाड़ने का कार्य किया है। म.प्र.के झाबुआ जिले के छोटे से गाँव भावरा में जन्मे चंद्रशेखर आज़ाद का जीवन चक्र किस प्रकार से वाराणसी, काकोरी, लखनऊ, झाँसी, ओरछा, कानपुर, आगरा, लाहौर, दिल्ली और प्रयाग में राष्ट्र के लिए किए अपने आत्मोत्सर्ग पर आकर पूर्ण होता है इस बात को इस प्रबंध काव्य में श्रीकृष्ण सरलजी ने बड़े ही मनोभेदक तथा बड़े ही भावुक ढंग से प्रस्तुत किया किया है। उन्हीं के शब्दों में यदि कहें तो यह सम्पूर्ण प्रबंध काव्य एक अमर सेनानी की बलिदान गाथा को स्वर्ण अक्षरों में लिखने का एक महान प्रयास कहा जा सकता है यथा -


आज़ाद हिंद के बलिदानों का स्वर्ण लेख,

जो गर्म खून से गौरव लिपि में लिखा गया।


राष्ट्रकवि श्रीकृष्ण ‘सरल’ का महान प्रबंध काव्य ‘अजेय सेनानी चंद्रशेखर आज़ाद’ एक राष्ट्रीय अभिलेख के रूप में सदैव स्मरण किया जाएगा। राष्ट्रकवि श्रीकृष्ण ‘सरल’ ने आजीवन राष्ट्रीय वीरों को और उनके जीवन के विभिन्न पहलुओं को समाज के सामने लाने का महान प्रयास किया है। सरलजी स्वयं भी एक स्वतंत्रता सेनानी तो थे ही साथ ही उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान हो रहे विभिन्न प्रकार के आंदोलनों तथा घटनाओं को हमारे सामने जीवंत रूप में अपनी रचनाओं के माध्यम से खड़ा करने का प्रयास किया है।


इस प्रबंध काव्य के पूर्व राष्ट्रकवि श्रीकृष्ण ‘सरल’ ने शहीदे आज़म सरदार भगत सिंह के जीवन पर आधारित प्रबंध काव्य पूरा कर लिया था और उसकी ख्याति और उसके महत्व को जानकर चंद्रशेखर आज़ाद के अन्य क्रांतिकारी साथियों में से एक श्री विश्वनाथ वैशंपायन ने सरलजी को यह सुझाव दिया कि 'इस ग्रंथ के लिखने के पश्चात आप पर एक और ऋण बाकी है और वह आपने अनजाने में अपने ऊपर चढ़ा लिया है। शायद यह कल्पना आपके मस्तिष्क में भी होगी वह यह कि अमर शहीद चंद्रशेखर आज़ाद पर भी आप द्वारा ऐसा ही महाकाव्य लिखा जाना आवश्यक है।'


श्री वैशम्पायन के इन शब्दों ने सरलजी को ना केवल विचलित किया अपितु गहरे प्रभावित भी किया। उन्हीं के शब्दों में यदि कहें तो 'इन शब्दों ने मेरे संकल्प सरोवर में कंकड़ डालकर लहरें उत्पन्न कर दी थीं और उन लहरों को एक तट मिल गया जिससे टकराकर वही ध्वनि फिर निकली कि चंद्रशेखर आज़ाद पर भी इसी प्रकार का महाकाव्य लिखा जाना आवश्यक है।' बनाम श्रीकृष्ण ‘सरल’ इससे उन्हें बड़ी प्रेरणा और ऊर्जा मिली। स्वयं शहीद की माता राष्ट्रमाता श्रीमती विद्यावती ‘सरदार भगत सिंह’ नामक प्रबंध काव्य का समर्पण स्वीकार करने हेतु उज्जैन आई थीं और हजारों लोगों की भीड़ के सम्मुख उन्होंने महाकवि श्रीकृष्ण ‘सरल’ को मानो यह आदेश दिया कि 'तुमने मेरे बेटे भगत सिंह पर तो इतना बड़ा ग्रंथ लिख दिया है ऐसा ग्रंथ पहले तुम्हें चंद्रशेखर आज़ाद पर लिखना चाहिए था। आज आज़ाद की मां नहीं है पर उसकी मां के स्थान से मैं तुम्हें यह आदेश दे रही हूं कि अब तुम दूसरा ग्रंथ चंद्रशेखर आज़ाद पर भी लिखो, वचन दो कि क्या तुम ऐसा कर सकोगे?' भला किसी कवि के लिए इससे बड़ा आदेश, इससे बड़ा आशीर्वाद, इससे बड़ा पुण्य और क्या हो सकता है कि स्वयं राष्ट्रमाता, वीरमाता उन्हें यह आदेश दे रही हों। महाकवि श्रीकृष्ण ‘सरल’ ने भी अपने रक्त का तिलक माता के मस्तक पर लगाकर मानो संकल्पित होकर माता को एक वचन दिया और उसे शीघ्र ही पूरा भी किया।


राष्ट्रीय चेतना के इस जीवंत अभिलेख की रचना प्रक्रिया के दौरान उन्हें अनगिनत पीड़ा हुई। महाकवि श्रीकृष्ण ‘सरल’ कहते हैं कि ‘लेखन क्रम में सृजन की जितनी पीड़ाएँ हो सकती हैं , उनकी अनुभूति मुझे हुई है। इसे लिख चुकने पर एक बहुत बड़े ऋण की निवृत्ति का आनंद मुझे हो रहा है।‘ इससे बड़ा आनंद, इससे अधिक संतोष, इससे अधिक समाधान किसी रचनाकार के लिए, किसी लेखक के लिए और भला क्या हो सकता है कि वह इन सारी फिल्मी स्थितियों को झेलते हुए, इन सारी कठिनाइयों को पार करते हुए उस वीर माता को दिए वचन के चलते, इस महान कार्य को संपन्न कर पाए। इस प्रकार अंत में साहित्य का यह ‘पथिक अपनी अनुभूतियों के रुप में प्रस्तुत करता है, अपना प्रतिबोध और युगध्वनि के साथ भावनाओं को विराम मिलता है।‘


इस प्रबंध काव्य का आरम्भ ' आत्मदर्शन ' से होता है जिसमें हमें आज़ाद की प्रखर छवि के दर्शन होते हैं, जब सरलजी की लेखनी से शब्द, चिंगारी के समान फूटते है कि,-

चंद्रशेखर नाम, सूरज का प्रखर उत्ताप हूँ मैं,

फूटते ज्वालामुखी-सा, क्रांति का उद्घोष हूँ मैं।


यह सर्ग आज़ाद की विद्रोही वृत्ति तथा प्रखर राष्ट्रवादी संचेतना को हमारे सामने लाकर आज़ाद की एक वीर सेनानी की छवि के दर्शन हमें करवाता है। जब शब्द आते हैं कि-

मैं ग़ुलामी का कफ़न, उजला सपन स्वाधीनता का


तो उस सेनानी के मन की अवस्था सामने आ जाती है, तो दूसरी ओर उनके मन का विक्षोभ लावा बन कुछ इस तरह फूट पड़ता है, उस दासता के, दमन के विरुद्ध कि -

इनक़लाबी आग में ,अन्याय की होली जलाओ,

गर्जना के घोष में विद्रोह के अब गीत गाओ।


यह ललकार , यह चुनौती थी उस निरंकुश राज सत्ता के लिए कि-


मैं तुम्हारे ज़ुल्म आघात को ललकारता हूँ


सरलजी इस सर्ग में लेखकों को भी राष्ट्रीय अस्मिता का संदेश देते हुए कहते हैं कि-


चल रही तलवार या बंदूक हो जब देश के हित,

यह चले, चलती रहे , क्षणभर कलम रुकने ना पाए।


सर्ग 'क्रांति -दर्शन' में हमें राष्ट्रीय आंदोलन के एक भिन्न पहलू के दर्शन होते हैं। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान सदा ही अहिंसात्मक तरीक़ों का बोलबाला रहा तथा हिंसात्मक आंदोलनों को ओछा और निरर्थक बताकर उनका महत्व कम करने का प्रयास किया गया –

कौन तुम? तुम पूज्य बापू ! राष्ट्र अधिनायक हमारे ,

तुम बहिष्कृत कर रहे, ये क्रांतिकारी योजनाएँ।


किन्तु इन वीर मतवालों के हौसले इससे भी पस्त नहीं हुए और वे यही कहते रहे कि -


और जननायक! भले ही तुम हमें अपना न समझो ,

तुम भले कोसो, हमारे आज बम-विस्फोट को भी।

सह रहे आघात हम जैसे विदेशी राज-मद के ,

झेल लेंगे प्राण, अपनों की करारी चोट को भी।


उन क्रांतिकारियों के व्यथित मन की पीड़ा यहाँ उजागर होती है।


हमें बस यही बताने का प्रयास किया गया कि हमें यह स्वतंत्रता केवल अहिंसा के बल पर ही मिली है, किन्तु यह भारतवर्ष का सबसे बड़ा अर्धसत्य है। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में इस देश के समस्त स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा अपने–अपने तरीकों से दुश्मन को परेशान और मजबूर किया गया ताकि वह इस देश को दासता से मुक्त कर दे , सभी का अपना-अपना महत्व है चाहे, भगत सिंह-सुखदेव-राजगुरु हों, आज़ाद हों, नेताजी सुभाष हों, सावरकर हों या इन जैसे अनगिनत-अनजान बलिदानी,सभी के त्याग और उत्सर्ग के फलस्वरूप ही यह स्वतंत्रता हमने हासिल की है। क्योंकि उनवीरों का दृढ़ विश्वास था कि -


युद्ध के संहार में, हिंसा–अहिंसा कुछ नहीं है,

मारना-मरना , विजय का मर्म स्वाभाविक समर का।


भावरा के अंतर्गत 'ग्राम - धरा' सर्ग में अमर सेनानी आज़ाद के गाँव का बड़ा ही मनोहारी वर्णन किया गया है -


और परिचय मैं बता दूँ , भावरा कहते मुझे सब,

जो घुमड़ती ही रहे, उस याद जैसा गाँव हूँ मैं,

छोड़ जाता जो समय के वक्ष पर दृढ चिन्ह अपना।


जिस गाँव भावरा में वे जन्मे, पले-बढ़े, घूमे, जिसकी माटी, पानी , जंगल उनके सान्निध्य के सहोदर हैं, उनके निर्भीक व्यक्तित्व के साक्षी हैं।


आगे आज़ाद वाराणसी चले गए और मात्र चौदह वर्ष की अल्प आयु में स्वतंत्रता समर में कूद पड़े।


देखे केवल चौदह वसंत जीवन के,

संकल्प उग्र हो गए उदित यौवन के।


जुल्म सहे, कोड़ों की मार सही किन्तु अपने पग जमाए ध्येय पथ पर बढ़े जा रहे थे, क्योंकि नियति ने सब कुछ तय जो कर रखा था -


सहला ना सके उसके घावों को गाँधी,

आ गई क्रांतिकारी भावों की आँधी।

लपटों का सरगम छिड़ा उग्र जीवन में,

वह धूमकेतु-सा निकला क्रांति गगन में।


और इस धूमकेतु के प्रकाश से सारे भारतवर्ष की आँखें चुँधिया गईं। काकोरी की लूट आज़ाद के जीवन की एक बड़ी ही महत्वपूर्ण घटना थी जिसने उनके जीवन को एक नया मोड़ दिया।

जड़ दिया तमाचा शासन के मुँह पर भारी,

तिलमिला उठे अंग्रेज बहादुर चाँटे से,

खिलखिला उठे भारत के वीर क्रांतिकारी।


सचमुच यह विदेशी सत्ता के मुँह पर एक ज़ोरदार तमाचा था, जिसकी गूँज दूर तक सुनाई पड़ी।


बिफरी हुई अंग्रेजी हुकूमत ने चारों तरफ़ अपने सैनिक दौड़ाए, आखिर उनकी नाक का सवाल था। काकोरी के दोषी पकड़े ही जाने चाहिए इस मुहीम के चलते साम-दाम-दंड-भेद के सहारे उनमें से कुछ क्रांतिकारी पकड़ लिए गए और फिर न्याय का नाटक शुरू हुआ।

फिर हुआ न्याय का नाटक जैसे होता है।


लेकिन फैसला सभी जानते थे, और हुआ भी वही, पकड़े गए वीरों को फाँसी पर चढ़ा दिया गया, उन्हें भी इस बात का कोई मलाल ना था -

वे झूल गए फंदे पर हँसते-हँसते ही।


किन्तु आज़ाद तो अपने नाम के अनुरूप आज़ाद ही रहे, पुलिस उन्हें छू तक नहीं पाई।


आज़ाद, नाम जैसा ख़ुद भी आज़ाद रहा,

अँग्रेज़ हुकूमत छू न सकी उसकी छाया।


आज़ाद झाँसी भी गए, वही झाँसी जो प्रेरणा थी बलिदानियों की, जो धरती थी अभिमानियों की, जो थी प्रतीक दुःसाहस का। वहाँ जाकर कोई आत्मोत्सर्ग के अलावा भला माँग भी क्या सकता है -

बोला,माँ! दे सकती हो तो यह वर दे-दे,

आज़ादी के तेरे सपने साकार करूँ।

आलेख प्रेरणा की जो रहे पीढ़ियों को,

जो मुर्दों को जीवन दे ऐसी मौत मरुँ।


शायद नियति उस वीर को उसी दिशा में ले जा रही थी जो अंतिम है, अनंत है।


उधर अंग्रेज पुलिस पागलों की भाँति आज़ाद को खोज रही थी – ज़िंदा या मुर्दा। लेकिन आज़ाद का विश्वास दृढ़ था -


यह पुलिस स्वयं हारेगी और थकेगी,

जीते जी, मेरी छाया छू न सकेगी।

आज़ाद नाम, हरदम आज़ाद रहूँगा।


उन वीर मतवालों का एक ही ध्येय था 'अखंड भारत' और उस ध्येय की पूर्ति से पहले साक्षात मृत्यु को भी उन्हें छूने का अधिकार न था। फिर –

सबने अपने हाथों से अपना ख़ून दिया,

जो मानचित्र खींचा अखंड भारत का था,

उसको रंगकर, जीवन को जोश–जूनून दिया।


क्या उन वीर युवा मतवालों के मन में कुछ अरमान नहीं रहे होंगे? क्या उनका मन भी कभी अन्यत्र भटका ना होगा? क्या उनके मन में भी कभी कोई मृदुभाव जागृत ना हुआ होगा? क्या उनके मन में कोई स्वप्न ना रहा होगा? एक स्थान पर भगत सिंह और आज़ाद के बीच का संवाद तो हमें सोचने पर बाध्य कर देता है कि –


आज़ादी अपना मूल्य माँगती है हमसे,

हम अपने मीठे सपनों का बलिदान करें।

जिसकी मिट्टी की गंध समाई साँसों में,

जीवन देकर उस धरती का सम्म्मान करें।


क्योंकि उनका प्रेम तो एक ही था यह देश, यह भारत भूमि। तभी तो वे कहते हैं -


आज़ाद तड़पकर बोल उठा, 'सुन भगत सिंह!

यह ख़ून देश का है यह मेरा ख़ून नहीं।


उस वीर तपस्वी सेनानी का एक मात्र लक्ष्य तो स्वतंत्रता ही था, वह उसे ही ढूंढ़ रहा था, रात-दिन भटक रहा था मन के भीतर जलती क्रोधाग्नि की मशाल लिए -

वह खोज रहा था भारत की आज़ादी को,

अपने प्राणों की जलती हुई मशाल लिए।


क्योंकि इस स्वतंत्रता को वे अपना अधिकार मानते थे और सहज नहीं मिली तो उसे छीनकर लेने के पक्षधर थे -


वे कहते आजादी अधिकार हमारा है,

अधिकार माँगकर नहीं, इसे लड़कर लेंगे।


और अंत में वह पल भी समीप आया जब आज़ाद अपने अंतिम लक्ष्य के काफी समीप पहुँच गए थे, वही लक्ष्य जिसको पाने के लिए यह वीर योद्धा बचपन से आतुर था, जिसके पीछे यह वीर मारा–मारा फिरता रहा, जो उस वीर का अंतिम ध्येय था। नियति उन्हें अपने लक्ष्य के समीप ले आयी थी, इसके लिए सारी तैयारियाँ हो चुकी थीं। उन्होंने जो जिया वह अलौकिक था, अतुलनीय था, अद्भुत था, किंतु उसके केवल वर्णन मात्र के लिए भी हम जैसे सामान्य लोगों का कलेजा मुँह को आता है। तब कवि की लेखनी हिम्मत जुटाकर यही कहती है –

उस अमर वीर की अत्माहुति का स्वर्ण लेख,

लिखने के पहले धैर्य जुटाना ही होगा।


वह अंतिम समय भी आया जब आज़ाद अपनों ही की धोखेबाज़ी के चलते दुश्मन पुलिस द्वारा घेर लिए गए। दोनों ओर बड़ा घमासान मचा, आखिर उनकी बंदूक में केवल एक ही गोली बची तब उन्होंने निर्णय लिया कि इन नराधमों के सामने समर्पण से अच्छा है उस भारत माँ के प्रति अपने आप को समर्पित कर देना, और –


पिस्तौल लगा माथे से घोड़ा दबा दिया,

वह खेल गया अपने से ही खूनी होली।

चलता था जीवन रखे हथेली पर जैसे,

कर लिया मौत का भी वैसे ही स्वयंवरण।


सारे वातावरण में एक रहस्यमय सन्नाटा छा गया, मौत का सन्नाटा ...


वह वीर अमर सेनानी मृत्यु को वरण कर नवजीवन पा गया, ऐसा जीवन जो अनादि था, अनंत था, शाश्वत था, चिरस्थायी था.......वह आज़ाद था, आज़ाद रहा और आज़ाद ही इस संसार से विदा हो गया, सारे बंधनों को धता बताकर.........


मानो यही संदेश देते हुए कि –

प्रेरणा शहीदों से हम अगर नहीं लेंगे,

आजादी ढलती हुई साँझ हो जाएगी।

यदि वीरों की पूजा हम नहीं करेंगे, तो

यह सच मानो, वीरता बाँझ हो जाएगी।


राष्ट्रकवि श्रीकृष्ण सरल ने जिस मार्मिक ढंग से अजेय सेनानी चंद्रशेखर आज़ाद की जीवन गाथा भारतवासियों के समक्ष प्रस्तुत की है वह अत्यंत प्रशंसनीय है। इस काव्य ग्रन्थ के शब्द-शब्द से, पँक्ति-पँक्ति से राष्ट्र प्रेम, राष्ट्रीय चेतना एवं राष्ट्रीय गौरव का जो भाव जागृत हुआ है, वह बड़ा ही पावन है, पुनीत है, पवित्र है। यह काव्य ग्रन्थ इन समस्त संवेदनाओं को वाणी देने के साथ ही भारतवर्ष के राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन के 'राष्ट्र के प्रति निःस्वार्थ आत्मोत्सर्ग' के स्थायी भाव का भी अगली पीढ़ी में संवहन करता है। जब राष्ट्रकवि की लेखनी संदेश देती है कि -

कर्तव्य कह रहा चीख-चीखकर यह हमसे,

हर एक साँस को एक सबक यह याद रहे।

अपनी हस्ती क्या, रहे-रहे या नहीं रहे,

यह देश रहे आबाद, देश आज़ाद रहे।


आज़ाद तथा उन जैसे भारतवर्ष के महान बलिदानियों तथा उनके वीरोचित कर्म को पृसृत करनेवाले राष्ट्रकवि सरल जैसे कलम के समस्त सिपाहियों की पावन स्मृतियों को शत -शत नमन।


संदर्भ ग्रंथ : अजेय सेनानी चंद्रशेखर आजाद – श्रीकृष्ण सरल

 

डॉ. पुरुषोत्तम पाटील

सहायक प्राध्यापक (हिंदी), जलगाँव

कवयित्रि बहिणाबाई चौधरी उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय

विशेषज्ञता–अनुवाद तथा तुलनात्मक साहित्य, राष्ट्र भाषा प्रचार

अखिल भारतीय साहित्यिक संस्थाओं, आकाशवाणी में सक्रियता

लेखक ई-परिचय - https://www.shrikrishnasaral.com//profile/pbpatil

 

विशेष सूचना –

प्रस्तुत ब्लॉग श्रृंखला में प्रकाशित आलेखों अथवा रचनाओं में अभिव्यक्त विचार लेखक के निजी हैं । उसके लिए वे स्वयं उत्तरदायी हैं । संपादक और प्रकाशक उससे सहमत हों, यह आवश्यक नहीं है । लेखक किसी भी प्रकार के शैक्षणिक कदाचार के लिए पूरी तरह स्वयं जिम्मेदार हैं ।

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