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हिन्दी साहित्यकारों के चयनित लेख, संस्मरण, शोधपत्र आदि को वेबसाइट पर शब्द–साधक ब्लॉग के माध्यम से सहेजा जा रहा है। राष्ट्रीय–चेतना/ अध्यात्म/ समरसता विषयों पर रचनाएँ आमंत्रित हैं !

- डॉ. धर्मेन्द्र सरल शर्मा

अध्यक्ष, राष्ट्रकवि श्रीकृष्ण सरल साहित्य समिति

 

डा. देवेन्द्र  दीपक | डॉ. प्रेम भारती | गिरेन्द्रसिंह भदौरिया "प्राण" | आचार्य देवेन्द्र देव | चौधरी मदन मोहन समर | डॉ. रामवल्लभ आचार्य | स्व. पं. रामचन्द्रराव मोरेश्वर करकरे

 

सौन्दर्य का निर्झर


डॉ. प्रेम भारती

भोपाल, 12 दिसंबर 2024


पाषाण प्रतिमाओं की–

प्रदर्शनी लगी थी किसी महानगर में

मूर्तिकार ने–

अपने जीवन के अमूल्य क्षणों को लेकर

इन प्रतिमाओं को तराशा था

सभी प्रतिमाएँ भगवान की थीं

राधा और कृष्ण सीता और राम

बुद्ध, ईसा, गाँधी आदि

कुछ आधुनिक भगवान भी बैठे थे, वहाँ…

 

सभी प्रतिमाओं के आभा–मण्डल पर

एक निखिल सौन्दर्य था

सौन्दर्य हीन था तो केवल मूर्तिकार

फिर भी उसके चेहरे पर था एक अपूर्व सन्तोष का भाव

उसने साहस किया था

एक सम्पूर्ण सत्य उद्घाटन करने का

मूर्तियों के माध्यम से

बिना भेदभाव के, बिना भीति के।

 

परमात्मा किसी मूर्ति में कैद नहीं होता

जीवन है–परमात्मा

और वह परमात्मा तब मिलता है

जब चित्त पर कोई दीवार न रह जाए

उसको प्रगट करने में

किसी ग्रन्थ की आवश्यकता नहीं है

न किसी शब्द की, न किसी सिद्धांत की।

उन मूर्तियों के माध्यम से वह अपना

मोक्ष भी नहीं चाहता

दूसरों का मोक्ष चाहता है

 

उसका विचार है–

“पर–सेवा–हित यदि जीवन नर्क भी बने–

तो वह पर–रति द्वारा अर्जित स्वर्ग से बढ़कर है।”

उसे विश्वास है–

उस महान रक्त बिन्दुओं से–

परमात्मा के चाहने वाले पराक्रमी सेवक बनेंगे

जो सम्प्रदायों, देवालयों तथा धर्माधीशों के कारागृही–विचारों से मुक्त होंगे।

 

इन्हीं विचारों को रूपायित करने के लिए

एक और नई मूर्ति बना रहा था वह

कि एक सेठ सीता राम की मूर्ति खरीदने आए

उसे राम तो भाए

किन्तु सीता नहीं सुहाई

क्योंकि उसमें सौन्दर्य का अभाव था

ऐसा सेठ का भाव था

 

इसीलिए राम की मूर्ति के साथ वह राधा को ले आया

‘सीता–राम’ के रूप में दोनों मूर्तियों की–

प्राण प्रतिष्ठा की।

इसी बीच हुआ एक महान आश्चर्य

राम ने देखा राधा का सौन्दर्य

जो मुक्त निर्झर की भाँति,

स्वच्छन्द गति से बह रहा है–

उन लोगों की ओर

जो देह को ही सौन्दर्य मानते हैं

निश्चय ही देह का सौन्दर्य–

एक पुष्प की भाँति है

जिस पर परमात्मा भी लुप्त हो उठता है

किन्तु उसे देखने के लिए

अन्तस का सौन्दर्य चाहिए।

 

यही सोचकर राम को संकोच हुआ

और मर्यादा का निर्वाह करते हुए

राधा की ओर–न देख सके

राधा बोली–राम तुम संकोच न करो।

 

मैंने पहले भी इस स्थिति का सामना किया था

याद करो–

एक बार संत तुलसी वृंदावन आए थे–

हमारे मन्दिर, हमारे दर्शन करने–

तब उन्होंने निवेदन किया था–

“कहा कहौं छवि आज की

भले विराजो नाथ

तुलसी मस्तक जब नवै

धनुष बाण लेउ हाथ”

 

तब भी चमत्कार हुआ था–

“कित मुरली, कित चन्द्रिका

कित गोपियन को साथ

अपने जन के कारणे

श्री कृष्ण भये रघुनाथ”

 

तब तुम ही तो तुलसी के आग्रह पर

कृष्ण से “राम” बने थे –

और मुझे अनिश्चय की स्थिति में डाल दिया था

मैं क्या करती

“सीता बनूँ या राधा ही रहूँ”

यही प्रश्न हमेशा उपस्थित रहता है

किन्तु अब मेरा निश्चय है

 

सीता भी मैं ही हूँ, राधा भी मैं हूँ

दोनों ही रूपों में मुझे विरहिणी ही रहना है

तुम चाहे छलिया रहो या राम

मुझे तुम्हारे दोनों रूप ही भाते हैं

मैं केवल साक्षी हूँ

समय के प्रवाह की अब मुझे चिन्ता नहीं

यह दिव्य शान्ति, यह निस्तब्धता

यह महोत्सव, यह भक्तों की भीड़

जो निश्चित ही मायावी जान पड़ती है

मेरे हस्तक्षेप से खण्डित न हो जाए

इस भय से भी मैं मुक्त हूँ

सारा ही जीवन सत्य नहीं

उसमें बहुत कुछ झूठा है, माया है

काल के प्रवाह में सीता पर भी आरोप लगे

अब मैंने जाना है कि–

 

सीता के रूप में–

कर्म के पीछे एक महत्वाकांक्षा थी

त्याग के पीछे गौरव लिप्सा थी

वे सब भाव अब तिरोहित हो गए

स्वर्ण मृग के धोखे में

अब मुझे नहीं आना है

आत्मशक्ति के विवश अपव्यय के पीछे

कैसी पीड़ा, कैसा त्रास,

इस विराट मन्दिर के

तुम ही तो सूत्रधार हो

तुम ही मूर्ति हो

तुम ही मूर्तिकार हो

तुम मुझे जिस भाव से भी देखना चाहो

देखो। अवश्य देखो

मुझे तो तुम हर भाव में स्वीकार हो

तुम्हारे बिना मेरा जीवन

एक अधूरी कहानी है

सौन्दर्य का निर्झर तो–

आत्मा की अमृत–वाणी है।

 

विशेष : कवि की कृति “निर्बंध देह गंध” को मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी द्वारा श्रीकृष्ण सरल पुरस्कार–2011 दिया गया है।

 


पांचजन्य का नाद चाहिये !


 डॉ. रामवल्लभ आचार्य

भोपाल, मध्यप्रदेश, 11 दिसंबर 2024


वंशी के स्वर नहीं कृष्ण अब पांचजन्य का नाद चाहिए,

मोहग्रस्त भारत को भगवन्, गीता का संवाद चाहिए।

 

जो इस पावन भरत भूमि को

नहीं समझते अपनी माता,

जिनकी निष्ठा नहीं देश में

बैरी हैं वे, कहो न भ्राता।

 

राष्ट्र–द्रोहियों को रौंदे जो, अब ऐसा उन्माद चाहिए,

मोहग्रस्त भारत को भगवन् गीता का संवाद चाहिए।

 

आखिर कब तक ढोएँगे हम

अपने पुरखों के पापों को,

दूध पिलाकर पाला जिनने,

आस्तीन वाले साँपों को।

 

आतंकी कालिया नाग को, काली दह का स्वाद चाहिए,

मोहग्रस्त भारत को भगवन् गीता का संवाद चाहिए।

 

द्रुपद सुता निर्वस्त्र हो रही

दु:शासन फिर ताल ठोंकता,

यह कैसा सत्ता का मद है

कोई जाकर नहीं रोकता।

 

दुष्टों से मिल रही चुनौती, मौन नहीं, प्रतिवाद चाहिए,

मोहग्रस्त भारत को भगवन् गीता का संवाद चाहिए।

 

भारत के मस्तक को जिनने

छिन्न भिन्न करने की ठानी,

उनके मस्तक काट न पाए

तो फिर कैसे हिन्दुस्तानी?

 

एक बार निपटो निपटा दो, आगे नहीं विवाद चाहिए,

मोहग्रस्त भारत को भगवन् गीता का संवाद चाहिए।


विशेष : कवि की कृति “पांचजन्य का नाद चाहिए!” को मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत किया गया है। 

राष्ट्र–चेतना परक काव्य–संकलन को कवि ने शहीदों के युग–चारण अपने प्रेरणास्रोत कविवर श्रीकृष्ण सरल को समर्पित किया है।

 

जीवन पथ


चौधरी मदन मोहन समर

भोपाल, मध्यप्रदेश, 1 दिसंबर 2024

किशोर

 

उड़ जाने को पंख मचलते

पलते हैं सपने आँखों में

यूँ तो तारे भी लगते हैं

बहुत पास मेरी क्षमता के

मखमल के कालीन बिछा कर

मुझे रिझाते सभी रास्ते

उपदेशों से भरे खजाने

छलकाते मेरे पैमाने

लेकिन इनसे क्या होता है?

छूट रही बचपन की डाली

समय बहुत है बहुत जोश है

पर जेबें सब खाली खाली।

  

युवा

 

तोड़ लिए सब तारे मैंने

पंख लगाए हर सपने को

आसमान है पूरा मेरा

कहाँ समुन्दर मुझसे गहरा

दुनिया मुठ्ठी में है मेरी

जेबों में टकसालें सारी

लेकिन भरती घड़ी कुलाँचे

एक-एक क्षण छीन-छीन कर

कैसे बैठूँ फुर्सत वाले

पल-दो-पल मैं बीन-बीन कर

सबको पीछे छोड़ रहा हूँ

मैं दुनिया में दौड़ रहा हूँ

 

वृद्ध

 

उफ!

पिघल कर तरल हो गए

मेरे पंख मोम सरीखे

जिन तारों को तोड़ लिया था

गिनने पर वे ही हँसते हैं

ठहर गईं सब घड़ियां मेरी

बिना गति के रेंग रही हैं

पानी जैसा समय हुआ है

छुरियों से काटे न कटता

दूर कहीं वो छूटी दुनिया

जिसे नचाया कठपुतली सा

अब पुतले सा रखा हुआ हूँ

दुनिया तो चुपचाप नहीं है

पर मुझमें पदचाप नहीं है।

 

मृत्यु


गिरेन्द्रसिंह भदौरिया "प्राण" 

इन्दौर, मध्यप्रदेश, 25 नवंबर 2024


मृत्यु अवस्था  है  जीवन  की।

बस काया के  परिवर्तन की।। 

 

मोक्ष  मिला तो लय जीवन है,

जन्म मिला तो जय जीवन है।

लोग  सोचते   हैं  बस   इतना,

मरने तक का भय जीवन है।।

 

जब कि अमर की मृत्यु कहाँ है?

इससे  सच्चा‌  सत्य   कहाँ   है ?

कथा नहीं यह व्यथा कथन की,

मृत्यु  अवस्था  है  जीवन  की।।

 

दिखती  नहीं  अग्नि  काठों  में,

कहाँ  दूध  में  घी   दिखता  है?

कहाँ   बादलों    पर   बर्तन  हैं,

कौन कहाँ कविता लिखता है।।

 

यह   माया  है   साथ   चलेगी,

हर  पड़ाव  के  बाद मिलेगी।।

रही  बात  उत्थान  पतन  की,

मृत्यु  अवस्था  है जीवन की।।

 

पल - पल मृत्यु पा रहे तुम हो,

पल - पल जन्म ले रहे तुम हो। 

तुममें प्राण उपस्थित पल पल,

जीवन के भी जीवन तुम हो।।

 

नाहक   चिन्ता  पाल   रहे  हो,

दुविधा  में  क्यों  डाल  रहे हो।

बातें   करते    हो   दर्शन   की,

मृत्यु  अवस्था  है जीवन  की।।

 

चलो  अभी  यह  चिन्ता  छोड़ें,

मस्ती  का  जीवन  भी  जी लें।

कुछ पल हँस लें खेलखाल लें,

प्राण - पर्व  का जीवन जी लें।।

 

तनिक   बुढ़ापे  ने  क्या  छेड़ा,

और  खड़ा  कर दिया बखेड़ा।

भूल  गए  यौवन  बचपन  की,

मृत्यु  अवस्था  है  जीवन की।। 

 

एक जाति-वैद्य के हवाले से


डा. देवेन्द्र  दीपक

भोपाल, मध्यप्रदेश


संदर्भ : वीर सावरकर की पुण्य-तिथि 26 फरवरी

"सौ साल बाद भारत सावरकर को पहचानेगा" 

– राम मनोहर लोहिया

 

" ॐ  ! ॐ सहिष्णु ! ॐसहिष्णु ! "

 

यह क्या -

बन्धु, जरा पास आ

मेरी बात ध्यान से सुन -

सुबह शाम

आठों याम

सहिष्णुता का यह अखंड जाप

भविष्य में

एक दिन अवश्य बनेगा घोर संताप

 

कुछ स्वयं हमने

कुछ परकीयों  ने

हमारे लिए रचा

सहिष्णुता का एक मकड़जाल!

 

किसी कटु अनुभव के कारण

हम कभी कुछ हुए विदग्ध

परकीयों ने पंचम स्वर में

'सहिष्णुता'को हमारी

महिमा मंडित किया

एक षडयंत्र की तरह--

शेर जागने न पाए!

 

हम फिर आत्ममुग्ध हो

विदग्धता छोड़

अलापने लगे वही राग!

उबरते उबरते

फिर डूबने लगे!

 

इतिहास में मत जी

लेकिन इतिहास के साथ

जीना जरूर सीख

पूरा इतिहास पढ़ ।

प्रश्नवाचक बनकर पढ

माना कुछ काले पृष्ठ हैं

कुछ स्वर्णिम अध्याय भी तो हैं ।

 

अपना भूगोल सँभाल

पुनः अपना अजेय दुर्ग गढ़

पहले सीढ़ी पर बैठे साँप को मार

फिर सीढ़ियों पर चढ़ ।

 

बन्धु ,

कुछ पल के लिए

शान्त चित्त से

सहिष्णुता से हुए

लाभ हानि का हिसाब लगा !

 

देख, आँख खोलकर देख

तेरी सहिष्णुता

एक गोरखधंधा है

तू मानसी अंधा है!

 

तू अपनों के लिए घोर असहिष्णु

परकीयों के लिए परम सहिष्णु

 

एक ओर धर्म भीरु

दूसरी ओर धर्मान्ध

कहो रहीम कैसे निभै

केर बेर कौ संग!

 

अनुदार के लिए

उदार होना छोड़

अपनों से

मुहुँ मत मोड़ !

 

अहिंसा हमें भी प्रिय है

हमारा मूल हिंसक नहीं

लेकिन सामने की स्थिति को

सापेक्षता में देखना सीख !

 

अति की मति से बच

शक्ति का नया छंद रच !

 

प्रतिरोध का

अपना एक दर्शन

 आज उसका कर संदर्शन !

 

कुछ  इन चींटियों से सीख --

वे चुपचाप  अपना  काम करती  हैं

 उसे मालूम है

कि हम उसे मसल सकते  हैं

लेकिन  वह काटेगी  जरूर

सांप  भी उसकी बांबी में

जाने  से डरता है

यह संगठन की  अमरता  है !

 

कुछ मधुमक्खी  से सीख--

मधुमक्खी के छत्ते पर

पत्थर  मार कर  देख

और फिर 

उसके बाद  का मंज़र देख

 हर मक्खी

दौड़ा दौड़ा कर डंसेगी !

 

कुछ अपनी  गाय से ही सीख--

भोली-भाली,सीधी-सादी

शांत,शील,बेचारी

विशेषणों से  विभूषित गाय !

उसके  बच्चे  पर

तनिक  क्रूरता  करके देख

रस्सा तुड़ाकर वह गाय

सींग से चीर देगी  तेरा पेट!

 

हमारी  संस्कृति का  बोध वाक्य--

अत्याचार करना  पाप है!

लेकिन

लुटेरे  को लुटेरा

हमलावर को हमलावर

क्रूर को क्रूर

विलासी को विलासी

दुष्ट को दुष्ट

सितमगर को सितमगर न कहना

और सितम को

गर्दन झुकाकर सहना

बंधु, पाप नहीं, महापाप है!

 

राम कथा का

कृष्ण कथा का

यही सार है !

 

क्षमा  का उत्तर  क्षमा

खांडव का उत्तर  खांडव

लास्य नहीं, तांडव!

 

किसी कपटी  के कपट में

हमारी  कभी कोई  बेटी

अगर फंस गयी

उसे खंडहर  समझकर

अकेला  मत छोड़

उसे कोस मत

उसे  संरक्षण  दे !

 

छिन्न तार उसकी  अस्मिता को

अपनी  ममता  दे

संभलने का अवसर दे

आत्मीय परिवेश दे

अंतरंग परिसर दे ।

 

भूख से

भय से

लोभ से

अपमान  और उपेक्षा  से

हमारे  पाले से बाहर चला  गया जो

बंधु,  वह कोई  भेड़ नहीं है

हमारी  भुजा है !

 

हमारा  ईश्वर  पतित-पावन

सवर्ण के लिए जो पतित-पावन

अछूत के लिए

 पतित-पावन क्यों नहीं ?

 

हमारा  धर्म-बंधु अछूत

देव-दर्शन

समान पनघट

समान  मरघट के  लिए

आतुर अधीर !

 

लांछित के मनोविज्ञान  को समझ

देवदर्शन के लिए

आज का आग्रही

कल बनेगा  दुराग्रही!

बंधु ,याद  रख

परकीय बन वही  वंचित

कल हमारे  मान-बिन्दुओं को

ध्वस्त  करने में  नहीं  चूकेगा!

 हमारा इतिहास

 हमारे  जातीय दंभ पर थूकेगा!

 

ओ मेरे  सवर्ण बंधु,

अपने  जातीय द॔भ को छोड़ ।

जातीय दंभ यक्ष्मा है

और यक्ष्मा  संक्रामक  रोग है !

 

सामाजिक  आरोग्य  की  चिंता कर ‌-

 जो अपना  है

उसे  सहेज,

जो चला  गया

उसे वापस ला ।

उसे  प्यार  भरा  संसार दे

उसे  अपने पास रख

उसे अपनी  थाली  दे

उसका  दिया दाना चख !

 

आत्मवंचना से बच

परकीयों के प्रपंच को पहचान

धर्मांतरण का प्रतिफल राष्ट्रान्तरण!

और राष्ट्रान्तरण किसी दूसरे  का नहीं

अपना  मरण है !

 

अपने  पतन के कारण खोज

अपने  उत्थान के  बारे में  सोच

काल की गति को समझ

काल कोअपना बनाने कीकलासीख

 

राष्ट्र-देव के भाल पर

चिंता की  वक्र रेखा देख

समाज-पुरुष की गति को

अवरुद्ध  करते  बंधनों को  देख--

 

स्पर्श-बंधन

रोटी-बंधन

बेटी-बंधन

धंधा-बंधन

वेद-बंधन

सिंधु-बंधन

शुद्धि-बंधन

बंधु, क्या  कहूं, बंधन ही बंधन !

 

मति के साथ

युक्तिपूर्वक धैर्य  से

जब जहां  जो आवश्यक हो उसे

जोड़ना  सीख

छोड़ना सीख

मोड़ना सीख

तोड़ना  सीख!

 

जो साथ दे

उसे  साथ लेकर चल,

जो साथ  न दे

उसे  छोड़कर  चल,

जो विरोध करे

उसे  चुनौती  देकर चल,

लेकिन  चल !

गंतव्य की प्राप्ति  तक चल

अविराम,अविचल गति से चल

दास की तरह नहीं

अधीक्षक  की तरह चल !

 

मैंने  जो कहा

क्रांति-मेघ,

रक्त-कमल,

अभय-मूर्ति,

संकल्प-सूर्य

जाति- वैद्य

 लोक नायक 'विनायक' के

हवाले से कहा :

पूजा  में  रखे शंख  को उठा

शपथ ले

और शंखनाद कर

पूरी  शक्ति  से उच्चार -

 

ॐ जयिष्णु, ॐजयिष्णु, ॐजयिष्णु

ॐ वर्धिष्णु,ॐ वर्धिष्णु, ॐ वर्धिष्णु

ॐ सहिष्णु,ॐ सहिष्णु  ,ॐ सहिष्णु

  卐

•••विनायक दामोदर  सावरकर•••

जन्म 28 मई 1883

निधन26 फरवरी 1966

 

मिटी जा रही जाति किंतु, तुम भूल रहे हो भूलों में


पं. रामचन्द्रराव मोरेश्वर करकरे स्वर्गीय


प्रस्तुति : श्रीमती अनीता करकरे, ग्वालियर, 2 मार्च 2023

संदर्भ : परतंत्र भारत में हिन्दुओं के जातिगत एकीकरण पर 

सन् 1926 में रचित एक दुर्लभ कविता

 

प्रियवर सज्जन उठो उठो तुम, हृदय नेत्र को सुलझाओ ।

हिन्दजाति की हीनावस्था, देख देख कुछ शरमाओ ।

कहाँ गया वह हिंदू प्यारा ? कहाँ गया वह प्यारा नाम ?

कहाँ उसी का वह वैभव था ? कहाँ उसी का यह विश्राम ?

 

अर्धशताब्दी पहले जो थी, हिंदू की संख्या पूरी ।

क्या अब भी तुम उसको पाते, उतनी की उतनी भारी ?

नहीं नहीं ! प्रिय मेरे बंधु, अब भी धोखा खाते हो ।

वह आधी से भी अब कम है, फिर तुम ही क्यों सोते हो ?

 

उठो उठो ! भारत के प्रेमी, हृदय धरो जाति का ध्यान ।

अपनी हिन्दजाति के द्वारा, गाओ भारत का तुम गान ।

देख देख ! उस अध: पतन को, हृदय नष्ट हो जाता है ।

सुमन हिंदू के फुलवाने का, उपाय क्या कुछ दिखता है ?

 

नहीं नहीं ! क्यों अवश्य दिखता, करो हिंदू का पुनरुत्थान ।

जिससे भारत का वह प्यारा, सदा सुनावे सुख का गान ।

उस सुख को पाने ही के क्या, तुम भी ना अब अधिकारी ।

नहीं नहीं ! क्यों अवश्य ही हो, क्या तुम ना जीवनधारी ।

 

अतः स्वच्छ सर्वांगशिरोमणि, साधन दृष्टि आता है ।

जिसको करने ही से सारा दु:ख नष्ट हो जाता है । 

छोड़ हृदय के कुविचारों को, सुविचारों को अपनाओ ।

अछूत का कुछ मन ना धारो, एक एक से मिल जाओ ।

 

क्या शोषित अरू वंचित जाति, क्या उनमें ना जीवन प्राण ?

क्या ईश्वर के वह ना प्राणी, नहीं जानते वह सम्मान ।

एक ईश से तुम आये हो, उसी ईश से वे आये ।

उसी बिंदु को फिर जाना है, उसी ईश ही के जाये ।

 

गाओ गाओ ! प्रिय हिंदू तुम, एकता का सुन्दर गान ।

ऐक्य सर्वसृष्टि का दाता, ऐक्य है जीवन का दान ।

उसी ऐक्य के द्वारा तुम भी, अपनाओ सब ईश्वर प्राण ।

नाम तुम्हारा उज्ज्वल होगा, प्रसन्न होगा वह भगवान ।

 

अबलाओं की, विधवाओं की, कभी ‘आह’ ना सुन आवे ।

जर्जर होकर दु:खों से वे, कभी ‘श्राप’ भी ना देंवे ।

उसी समय हिंदू का होगा, इस जीवन से पुनरुत्थान ।

वही समय शुभसूचक होगा, जब हो जावे उसका मान ।

 

इन कर्मों के करने ही में, हो जावो जब पूर्ण उदार ।

फिर तो हिंदू श्रेष्ठ जाति का, उसी समय होगा उद्धार ।

विनय ‘राम’ की परिणित कर दो, विचार को अब कर्मों में ।

मिटी जा रही जाति किंतु, तुम भूल रहे हो भूलों में ।

 

हम कल का इतिहास लिखेंगे


आचार्य देवेन्द्र देव

बरेली, उत्तरप्रदेश

9 फरवरी 2023


यद्यपि सामन्तों, श्रीमन्तों की ड्यौढ़ी पर नहीं दिखेंगे ।

पर, सच मानें, हम ही हैं वे, जो कल का इतिहास लिखेंगे ।


हम विरंचि के अधिकृत प्रतिनिधि, लौह लाड़ले महाकाल के ।

नहीं कभी जो मुरझाते, वे पत्ते हैं हम, हरी डाल के ।

वरदानों के अक्षय वट हैं, बोधिसत्व के बोधिवृक्ष हम,

अंगुलिमालों ने भी देखे हैं अपने करतब कमाल के ।


वाक्केलि करने वाले ये, जितनी चाहे, उतनी कर लें

लेकिन अपने सम्मुख ये सब कहांँ टिके हैं, कहाँ टिकेंगे ?


हमने सदा कबीरा बनकर पाखण्डों की ढोलक फोड़ी ।

और, निराला बनकर दम्भों, अहंकरों की साख झिंझोड़ी ।

तुलसीचौरा बनकर हमने चौराहों पर बाँटे सौरभ,

वाल्मीकि बन तप: त्याग की सन्निधि सिंहासन से जोड़ी ।


हमको सुविधायित सौख्यों की धमकी मत दें, देने वाले,

संघर्षों की दहकों में हम खूब सिके हैं, और सिकेंगे ।


आदिकाल से शुभताओं के, शिवताओं के हम आराधक ।

गीता-गायक-से, अधर्म के उलटे-सीधे पर के बाधक ।

जिनके पीछे-पीछे चलते अर्थ सैकड़ों हाथ बांँधकर,

हम हैं उन शब्दों के सर्जक, रक्षक, सैनिक, सेवक, साधक ।


भौतिक अर्थों के किन्नरपति चाहे जितना ज़ोर लगा लें,

हम सिद्धान्तों के अनुयायी नहीं बिके हैं, नहीं बिकेंगे । 


भ्रमित जनों को दिशा दिखाते हैं पवित्र आचरण हमारे ।

'शठे शाठ्यम्' पर उतरे अब, निश्छल अन्त: करण हमारे ।

राम-कथा, भागवत सरीखे हम बाँचे जाएंँगे घर-घर,

बन निरुक्त जीवन की गुत्थी खोलेंगे व्याकरण हमारे ।


हम तो घर-घर, आँगन-आंँगन महकेंगे पर, आलोचकगण,

खोज न पाएंँगी शताब्दियांँ, जाकर इतनी दूर फिकेंगे ।


विशेष : कवि ने प्रोफेसर श्रीकृष्ण सरल पर महाकाव्य 'शंख महाकाल का' तथा ज्वलंत विषयों पर अनेक महाकाव्यों का लेखन किया है,

यथा–पं.रामप्रसाद बिस्मिल, युवमन्यु, गायत्रेय, बिरसा मुंडा, बांग्ला–त्राण आदि

 

विशेष सूचना –

प्रस्तुत ब्लॉग-शृंखला में प्रकाशित आलेखों अथवा रचनाओं में अभिव्यक्त विचार लेखक के निजी हैं । उसके लिए वे स्वयं उत्तरदायी हैं । संपादक और प्रकाशक उससे सहमत हों, यह आवश्यक नहीं है । लेखक किसी भी प्रकार के शैक्षणिक कदाचार के लिए पूरी तरह स्वयं जिम्मेदार हैं ।

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