- डॉ. सरोज मालपानी
डॉ. हरीश कुमार द्वारा संपादित पुस्तक ‘भारतीय साहित्य एवं संस्कृति के विविध आयाम’,
रॉयल पब्लिकेशन्स जोधपुर द्वारा प्रकाशित प्रथम संस्करण-2021, पृष्ठ 11-17 से साभार
लेखिका : डॉ. सरोज मालपानी, किशनगढ़, राजस्थान
शीर्षक : महाकवि श्रीकृष्ण सरल की दृष्टि में संस्कृति और साहित्य
rproyalpublication@gmail.com
देश का हृदयस्थल संस्कृति है, करते पुष्ट उसे सुविचार,
रस-सिंचक साहित्य निभाता, संस्कृति संरक्षण का भार ।
संस्कृति करती है पोषित, जीवन पाता जिससे सन्सार,
साहित्य विचारों का वाहक, समझाता है जीवन का सार ।
श्रीकृष्ण ‘सरल’-साहित्य, विविध आयामी चेतना का भंडार,
संस्कृति और साहित्य विषय पर, हैं उनके अनमोल विचार ।
मानव जीवन संस्कृति के चिरंतन साहचर्य से संचालित होता है । सम्यक कृतियों और परंपरा से प्राप्त संस्कारों का पुंजीभूत रूप ही संस्कृति है । संस्कृति जीवन जीने की कला है, जो सदियों से विकसित और परिष्कृत होकर समाज में रची-बसी है अतः किसी समाज-जीवन के सारे गुणधर्मों की समष्टि चेतना का नाम संस्कृति है । यह सामाजिक जीवन की आंतरिक गुणवत्ता को प्रस्फुटित करती है ।
महाकवि श्रीकृष्ण सरल का काव्य सांस्कृतिक चेतना का भंडारगृह है । उन्होंने संस्कृति को परिभाषित करते हुए उसका स्वरूप-चित्रण किया है एवं उसका महत्वांकन भी किया है । कवि के अनुसार संस्कृति देश की जीवनी शक्ति होती है । जिस प्रकार रक्त-परिशोधक-हृदय से ही शरीर के अन्य अवयव जीवनदान पाते हैं, उसी प्रकार संस्कृति के संसर्ग से ही देश प्राणवान होता है । सरलजी कहते हैं कि –
संस्कृति को परिभाषित करना मुश्किल है
मस्तिष्क नहीं, यह किसी देश का दिल है ।
परिशोधित होता रक्त हृदय के द्वारा,
संस्कृति का भी तो यही काम है सारा ।
संस्कृति ऐसा सागर है, जिसमें झरना और नदी रूपी सामाजिक जीवन और सभ्यता मिलकर एकाकार हो जाते हैं । जीवन की सभी उपलब्धियां, रचनाकर्म, खानपान, रहन-सहन, रीति-रिवाज, पर्व-उत्सव तथा संस्कार एवं जीवनदृष्टि आदि संस्कृति में ही समाहित होते हैं । इस प्रकार यह मानव जीवन के आंतरिक एवं बाह्य, दोनों रूपों में व्याप्त रहती है । देश की सांस्कृतिक भव्यता और दिव्यता ही उसकी आन-बान-शान-सम्मान-पहचान और महानता को निर्धारित करती है । सरलजी कहते हैं –
संस्कृति है, जो पहचान देश की होती
इसके कारण ही देश, देश होता है,
देखते सभी, संस्कृति की पूंजी कितनी
इस पूंजी का कितना निवेश होता है ।
चेतना और व्यवहार के दुकूलों को स्पर्श करते हुए देश की शाश्वत अच्छाइयों का समन्वित रूप ही संस्कृति कहलाता है । इसे देश के पुण्यों की आकृति और तपस्या का प्रतिफल ही कहा जा सकता है । क्योंकि –
जब सदियों की साधना फलवती होती,
फल-रूप मिला करता संस्कृति का मोती ।
संस्कृति का विकास शनै: शनै: होता है । वह सहज भाव से प्रवहमान जीवन में निरंतर अभ्यास से पुष्ट होती है और आदान-प्रदान से विकसित होकर पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती है । हस्तांतरण के इस क्रम में सांस्कृतिक मूल्यों में परिवर्तन, परिवर्धन और परिशोधन होता रहता है जिससे संस्कृति गतिमान होती है । सरलजी के शब्दों में –
यह दिवस मास वर्षों की वस्तु न संस्कृति
सदियों में बनते-बनते बन पाती है,
यह नहीं फसल है, अब बोई तब काटी
यह कई पीढ़ियों की सिंचित थाती है ।
संस्कृति सारग्राहिणी होती है, उसकी पाचन क्षमता भी अनूठी होती है । वह बुराइयों को पचाकर देश को अवनति-पथ पर अग्रसर होने से बचाती है –
जो हैं बुराइयाँ, संस्कृति उन्हें पचाती,
शुभ परम्पराएं वह सब ओर पठाती ।
संस्कृति सभ्यता का पर्याय नहीं है । सरलजी मानते हैं कि सभ्यता देश का बाह्य आवरण है और संस्कृति उसका आंतरिक सौंदर्य है । दृश्यमान भौतिक वैभव और सुख सुविधा के उपकरण सभ्यता के द्योतक हैं, जबकी जनचेतना में रची-बसी संस्कृति अदृष्ट और अनुभवगम्य है । सरलाजी के अनुसार –
सभ्यता दिखाई देती है आंखो से
संस्कृति होती अनुभूत हृदय के द्वारा,
मस्तिष्क सभ्यता को गति देता आया
संस्कृति परिलक्षित आत्म-विनय के द्वारा ।
हृदय से अनुभूत सांस्कृतिक चेतना ही वर्तमान समस्याओं का निराकरण कर सुखद भविष्य का ठोस आधार प्रस्तुत करती है एवं साहित्य को जन-उपकारक बनाती है । संस्कृति और साहित्य एक दूसरे के पूरक हैं, क्योंकि साहित्य जीवन की ही प्रतिकृति है और संस्कृति जीवन संचालिका है । इसीलिए साहित्य के विषय में भी महाकवि श्रीकृष्ण सरल का वैचारिक निदर्शन बहुत स्पष्ट है । वे मानते हैं कि संवेदनशील साहित्यकार सामायिक सत्य का मूक दृष्टा ही नहीं होता, सजग-सचेत सृष्टा भी होता है । मानव समाज साहित्यकार की अध्ययनशाला है । साहित्य जीवन-यथार्थ का चित्रण ही नहीं करता, वरन समाज को उन्नति तथा समृद्धि की राह दिखाने का कार्य भी करता है । साहित्य का मोती युगीन परिवेश की सीपी में ढलकर ही अमूल्य बनता है । संस्कृति और समाज से संश्लिष्ट साहित्य अज्ञान के अंधकार को दूर करके ज्ञान का प्रकाश फैलाता है, प्रगति की राह दिखाता है । महाकवि सरल के शब्दों में –
साहित्य सभी का करता हित-साधन है,
वह कभी किसी का भी है अहित न करता,
साहित्य उठाता गिरे हुए को ऊपर
साहित्य किसी को भी अवदमित न करता ।
साहित्य का स्वरूप-विश्लेषण करते हुए कवि उसे सर्वहितकारक मानते हैं । साहित्य केवल मनोरंजन ही नहीं करता वह मानोमालिन्य को दूर करके भावात्मक उच्चता प्रदान करता है । वे कहते हैं –
हित-भावों के कारण साहित्य कहाता
साहित्य वही, जो सबकी करे भलाई,
साहित्य न करता केवल मन का रंजन
करता प्रदान है यह मन को ऊँचाई ।
साहित्य स्व-केंद्रित नहीं होता, साहित्य वही है जो सबका कल्याण करे, संस्कृति का वाहक बने, मन को संस्कारित करे और दिशा बोध कराकर नई ऊर्जा व चेतना का संचार करे । वह देश काल की सीमाओं में आबद्ध नहीं रहता –
साहित्य किसी भी देश-काल का हो वह,
इन सीमाओं से वह ऊपर उठ जाता ।
साहित्य का धर्म जीवन को पतनोन्मुख होने से बचाना और उसका उत्थान करना है । साहित्यकार की चेतना का साकार प्रतिबिंबन तभी संभव है जब अभिव्यक्ति का दर्द हो और दर्द की अभिव्यक्ति हो । वस्तुतः –
साहित्य धुआं होता कवि की पीड़ा का
ऊँचा ही ऊँचा वह उठता जाता है,
साहित्य, नहीं जल-सदृश निम्नगामी है
आयाम सदा वह ऊंचे अपनाता है ।
साहित्य संयोजक होता है । असम्पृक्त को सम्पृक्त करता । साहित्य की इसी विशेषता को संकेतित करते हुए कवि सरल ने कहा है कि –
साहित्य, विखंडन की न नीती अपनाता
निर्माण-साधना का वह प्रेरक होता,
साहित्य, पक्ष जीवन का अति उज्ज्वल है
वह है समाज की कलुष-कालिमा धोता ।
साहित्य केवल वाणी-विलास, वाग्वैदग्ध्य का बुद्धिजन्य व्यायाम नहीं है । वह मनुष्य की सुषुप्त चेतना में नूतन प्राण संचरित करने की सामर्थ्य रखता है । साहित्य-सर्जक निस्वार्थ भाव से राष्ट्र व समाज को गति एवं दिशा प्रदान करता है –
युग-सार्थवाह साहित्यकार होता है
दुनिया पुस्तक, वह उसका अध्येता है,
सोचता नहीं साहित्यकार लेने की
वह जो जग को बस देता ही देता है ।
साहित्यकार की देन क्षणिक नहीं चिरस्थायी होती है । प्राणी तो मरणधर्मा है किंतु विचार अमर्त्य होते हैं, अतः चेतना संवाहक साहित्यकार युग-जीवन को अमरत्व प्रदान करने की सामर्थ्य रखता है । महाकवि सरल के शब्दों में –
अपने ही युग को देन नहीं देता वह
साहित्यकार का देय शाश्वत होता,
साहित्य-देन पीढ़ियां संजो कर रखतीं
साहित्यकार के सम्मुख जग नत होता ।
साहित्य-सृजन विशिष्ट कला है । साहित्य सौंदर्य की साधना है, ईश्वर की आराधना है, सृष्टि का श्रृंगार है, उन्नति का द्वार है, संस्कृति का संवाहक है और जन-कल्याण विधायक है । सरलजी ने साहित्य के गद्य व पद्य, दोनों रूपों का विवेचन करते हुए भाषा, छंद, अलंकार इत्यादि की महत्ता को भी रूपायित किया है । कविता क्या है? इस विषय पर विचार व्यक्त करते हुए महाकवि कहते हैं –
कविता न छंद, कविता न शब्द, कविता न अर्थ
कविता, कवि की अनुभूत वेदना का स्वर है,
कविता, कवि की अन्तर्पीड़ा का व्यक्त रूप
कुछ और नहीं है कविता, कवि का अंतर है ।
इसी प्रकार उन्होंने गद्य साहित्य की जीवंत विधा ‘पत्रकारिता’ को समाज सचेतक बताते हुए कहा है कि –
होता समाज का सजग सचेतक पत्रकार
है काम नहीं उसका केवल खबरें देना,
वह शिक्षित करता है पूरे समाज को ही
है काम, कुटिलता को आड़े हाथों लेना ।
जागतिक हलचल का निर्भीक रूप से यथातथ्य निरूपण करनेवाला समाचारपत्र शासन और जनता के बीच पारदर्शिता लाता है । सरलजी के अनुसार –
वह सेतु हुआ करता जन-शासन बीच सुदृढ़
दोनों के कामों में समरसता उपजाता,
लय हेतु खींचता कान कभी सारंगी के
वह ठुकठुक करके तबले को सम पर लाता ।
साहित्यकार की लेखनी एक साथ कई दायित्व निभाती है । उसकी अनूठी सामर्थ्य का शब्द-चित्र खींचते हुए कवि ने कहा है –
है धर्म लेखनी का, चेतना जगाना भी
है धर्म लेखनी का, तम का उन्मूलन भी,
है धर्म लेखनी का, अन्यायों से लड़ना
है धर्म लेखनी का, समाज-अनुकूलन भी ।
सृजन व समरसता की विधायिका लेखनी अन्याय व अत्याचार का विनाश भी करती है । यदि सद्भाव को विस्तारित करती है तो भ्रष्टाचार का पर्दाफाश भी करती है । सच तो यह है कि –
लेखनी उगलती जब अपने मुँह से शोले
जो जुल्म-सितम सब धू-धू करके जलते हैं ,
लेखनी जिधर चलती, आलोक बिखरता है
घनघोर अंधेरे अपने मार्ग बदलते हैं ।
इस प्रकार महाकवि सरल ने संस्कृति व साहित्य के स्वरूप, प्रभावक्षमता और भव्यता-दिव्यता का वर्णन करते हुए संसार में सभ्यता संस्कृति और साहित्य के उच्चतम मानदंड स्थापित करने वाले भारत की गौरव-गाथा का गान भी किया है, किंतु साथ ही कलम की उस असीमित सामर्थ्य को सुषुप्त देखकर उनका हृदय चीत्कार करता दिखाई देता है । वे कह उठते हैं –
साहित्यकार को मधुर स्वप्न क्यों छलते हैं ?
जब शत्रु मूंग अपनी छाती पर दलता हो,
क्यों नहीं शर्म से कहीं डूब मरता वह कवि
जो गीत प्यार के लिखे, देश जब जलता हो ।
इसी प्रकार साहित्यिक चेतना पर अनुदिन होनेवाला कुठाराघात संवेदनशील कवि को विचलित करता है । भारतीय संस्कृति के प्राणतत्व त्याग, समर्पण, शांति, सत्य, सहयोग, सौहार्द, शील, संस्कार, सदाचार, लज्जा, विनय, आत्मीयता आदि के स्थान पर निरंतर अमानुषिकता, ईर्ष्या, द्वेष, छल, कपट, असहयोग, अनीति, अहंकार, अविश्वास, वाचालता और स्वार्थपरता का बोलबाला चिंतनीय है । पाश्चात्य प्रभाव की प्रबलता से हमारा सांस्कृतिक गौरव छिन्न-भिन्न हो रहा है । जीवन में बढ़ती आपाधापी, विलासिता और यांत्रिकता ने भारत की अध्यात्मपरक संस्कृति को भोगपरक एवं भौतिकतावादी बना दिया है । सरलजी चिंता व्यक्त करते हुए कहते हैं कि यदि किस सांस्कृतिक क्षरण पर की गति पर यति नहीं लगाई गई तो भारतीय संस्कृति का संरक्षण कैसे होगा ? कवि ने ‘सरदार भगत सिंह’ महाकाव्य में नाट्य-मंचन के माध्यम से इस ओर ध्यान आकृष्ट किया है, जहाँ व्याकुल भारतीय संस्कृति पुकार-पुकारकर कह रही है कि –
तुम सोचो यदि गति यही रही, क्या होगा ?
मैं धीरे-धीरे मिटती ही जाऊँगी ।
मैं इसीलिए कह रही, बचाओ मुझको
सुनकर पुकार भी लोग न मुझे बचाते ,
परदेशी मुझ पर विकृति लाद रहे हैं
धीरे-धीरे वे मुझको खड़ा पचाते ।
संस्कृति को जीवन की प्राणशक्ति बताते हुए कवि कहते हैं कि संस्कृति का पतन सर्वनाश का द्वार है । संस्कृति की रक्षा के लिए सांस्कृतिक चेतना परम आवश्यक है, क्योंकि वह पराभूत राष्ट्र को भी पुनर्जीवित करने की सामर्थ्य रखती है । संस्कृति संरक्षण हम सभी का पुनीत कर्तव्य है अतः कवि भारतीय जन-गण का आह्वान करते हैं कि –
हम भारतीय हैं, भारतीय संस्कृति की हम
जो भी कीमत हो, देखकर वह, सम्मान करें,
कमजोर नहीं महसूस करें हम अपने को
जो निर्बल हैं, संरक्षण उन्हें प्रदान करें ।
साहित्यिक क्षरण पर क्षोभ व्यक्त करते हुए वे साहित्यकार को उसके महत दायित्व का स्मरण कराते हैं कि उसकी लेखनी सामाजिक असमानता, उच्छृंखलता व व अनीति को समूल उखाड़कर देशभक्ति और समरसता का शंखनाद करने में सक्षम है । कलम के सिपाही को लेखनी की सामर्थ्य याद दिलाते हुए सरलजी कहते हैं कि –
कलम के जादूगरों से कह रही युग-चेतना यह,
लेखनी की धार से, अंधेर का वे वक्ष फाड़ें ।
रक्त, मज्जा, हड्डियों के मूल्य पर जो बन रहा हो,
तोड़ दें उसके कंगूरे, उस महल को वे उजाड़ें ।
सरलजी अपनी लेखनी में ऐसी आग्नेय गति भर देना चाहते हैं जो देश और समाज में लगी जंग को जलाकर सांस्कृतिक निर्मलता को पुनर्स्थापित कर सके । सत्यम शिवम सुन्दरम युक्त साहित्य सर्जना की अभिलाषा से वे वाग्देवी सरस्वती से अपनी लेखनी के लिए यही वरदान मांगते है कि –
किसी मूल्य पर बिके नहीं यह,
अड़े नहीं यह, टिके नहीं यह,
कलम रहे स्वाधीन सदा ही, धरती और मुक्त अंबर दे ।
वीणा-पाणि ! मुझे यह वर दे ।
समग्रतः संस्कृति और साहित्य के विषय में महाकवि श्रीकृष्ण सरल के विचार अनुकरणीय और स्तुत्य हैं । उनका विशाल साहित्य सांस्कृतिक चेतना का अक्षय-कोश है । भौतिकतावादी वर्तमान परिवेश में संस्कृति संरक्षण और साहित्यिक उन्नयन हेतु कविवर सरल जैसे समर्पित साहित्यकार का प्रदेय और भी प्रासंगिक बन पड़ा है ।
सरलजी भारतवर्ष की अमूल्य राष्ट्रीय धरोहर हैं । क्रांतिकारियों व शहीदों को हमारी यादों में अमर करनेवाले तथा अपनी लेखनी से 125 पुस्तकों के राष्ट्रीय साहित्य की रचना करनेवाले समर्पित साहित्यकार का समुचित मूल्यांकन कर शहीदों के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करने का सुअवसर आज स्वाधीनता के अमृत महोत्सव के रूप में देश के सामने उपस्थित हुआ है । मैं यह आशा करती हूँ, इस सुनहरे अवसर पर सार्थक पहल करके ही हम नई पीढ़ियों का उचित मार्गदर्शन कर पाएंगे । वर्तमान परिस्थितियों में अपनी संस्कृति एवं सभ्यता को संरक्षित करने की दिशा में यह एक अनिवार्य कदम है ।
सुविख्यात साहित्यकार डॉ. नागेंद्र की राष्ट्रकवि श्रीकृष्ण सरल के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर दी गई अभिव्यक्ति से अपनी बात पूरी करती हूँ । डॉ. नागेंद्र कहते हैं –
“ यह अतिशयोक्ति नहीं, यथार्थ है कि सरलजी महर्षि वेदव्यास के अवतार हैं । ”

डॉ . सरोज मालपानी
सेवानिवृत्त सह आचार्य ( हिंदी ), किशनगढ़
एम.ए., पी-एच.डी. ( उदयपुर )
40 राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों में शोध-पत्र व
पत्रिकाओं में विभिन्न आलेख, स्वरचित कविताएं प्रकाशित
लेखिका परिचय - https://www.shrikrishnasaral.com//profile/saroj-m
email : blog@shrikrishnasaral.com
संदर्भ : लेखिका ने राष्ट्रकवि श्रीकृष्ण सरल द्वारा रचित क्रान्ति-गंगा, तुलसी-मानस, क्रान्ति-ज्वाल कामा, सरदार भगत सिंह, अशफाक उल्लाह खान, सरल-रामायण एवं जय सुभाष महाकाव्यों से उदधरण व संदर्भ प्रस्तुत किये हैं; संदर्भ-सूची संलग्न है ।
Bahut sundar 🙏🏽🙏🏽