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प्रोफेसर श्रीकृष्ण सरल : क्रान्ति-चेतना के अनवरत संघर्षशील व अपराजेय योद्धा

अपडेट करने की तारीख: 1 दिस॰ 2024

-डॉ. अन्नपूर्णा सिसोदिया

 

' सरल-कीर्ति ' ब्लॉग शृंखला के इस अंक में प्रस्तुत है

डॉ. अन्नपूर्णा सिसोदिया का अंतर्राष्ट्रीय जर्नल ‘Glimpses’, Ulrich USA, संस्करण-2023 में

Lumination Literary and Cultural Society (Regd.) मेरठ, उत्तरप्रदेश द्वारा प्रकाशित

लेख पृष्ठ 270-275 से साभार

शीर्षक : श्रीकृष्ण सरल के काव्य में संघर्ष-चेतना एवं वर्तमान में प्रासंगिकता

लेखिका : डॉ. अन्नपूर्णा सिसोदिया    |    संपादक : प्रोफेसर (डॉ.) राम शर्मा

 
 

" प्रोफेसर श्रीकृष्ण सरल : क्रान्ति-चेतना के अनवरत संघर्षशील व अपराजेय योद्धा "

 

हिन्दी काव्य परम्परा में राष्ट्र-प्रेम एवं क्रान्ति-चेतना के अग्रोहा, क्रान्तिधर्मी कवि श्रीकृष्ण सरल की काव्य सर्जना में ऐसा पुरुषार्थ है, जो प्रत्यक्षतः भारतीय राष्ट्रीय मूल्य-बोध, संस्कृति, संघर्ष-चेतना एवं आत्मबल सम्वर्धन का प्रतिनिधित्व करता है। सरलजी की कविता, संघर्ष-चेतना की वाहक है, प्रत्येक भारतीय हृदय को सदैव राष्ट्र-हित में चैतन्यता प्रदान करनेवाली ऊर्जा है तथा राष्ट्र-प्रेम की वह मशाल है, जो युगों-युगों तक भारतीय जनमानस में देशप्रेम की अग्नि को प्रज्वलित रखने में सहायक होगी।

 

प्रोफेसर श्रीकृष्ण सरल के काव्य में संघर्ष-चेतना

 

कविवर श्रीकृष्ण सरल ने अपनी काव्यानुभूति द्वारा राष्ट्र-प्रेम एवं संघर्ष-चेतना की भावना को व्यापकता प्रदान की है। अंग्रेजी शासन हो या वर्तमान स्वशासन, मूक पशुसम सब कुछ सहने की नियति को स्वीकारते कोटि-कोटि भारतीयों को जाग्रत करते हुए कवि, अनवरत संघर्ष को ही शोषण मुक्ति का एक मात्र साधन मानते हैं, क्योंकि उनके अनुसार –

 

अव्यक्त वेदना मन की घुटन कहाती

भीतर-ही-भीतर वह मन को तड़पाती,

वह घुटन शीघ्र ही असंतोष बन जाती

पा और तीव्रता, वही रोष बन जाती। 1

 

कवि को विश्वास है कि जब लोग सचेत होंगे तभी वे संघर्ष हेतु प्रेरित होंगे, अतः वे भारतीय जनमानस को अपने निर्माणाधीन भविष्य के लिए संकल्पशील बनने की प्रेरणा देते हुए कहते हैं कि –


जो प्रगति चेतना देते, उन्हें उठाओ तुम

तुम स्वयं उठोगे, प्रगतिशील कहलाओगे। 2

 

कवि का मानना है कि संघर्षों से रू-ब-रू होकर ही मनुष्य जीवन का मूल्य जान पाता है, इसलिए वे कहते हैं कि -


विद्रोह दबा देना न चिरंतन हल है। 3

 

अमर शहीदों के युग-चारण श्रीकृष्ण सरल के काव्य में अभिव्यक्त विद्रोह या संघर्ष-चेतना उनके क्रान्तिकारी भावों की पुष्टि करते हैं। उनके काव्य में जन-चेतना के महत्व को इस प्रकार उकेरा गया है –

 

चेतना अगर जनता में जाग्रत हो जाए

तो वह अदम्य बल लोगों में भर देती है,

वह महाशक्ति बन अपनी शक्ति दिखाती है

चेतना सजग हो कुछ का कुछ कर देती है। 4

 

सरलजी सम्पूर्ण भारत के नगरों में ही नहीं वरन् गाँव-गाँव तक इस चेतना की व्याप्ति के आकांक्षी हैं, इसलिए कहते हैं कि -

 

क्यों ग्राम अछूते रहते प्रखर चेतना से। 5

 

विषम परिस्थिति रूपी अग्नि लोह को गला सकती है, किंतु प्रचंड ज्वालाओं के स्पर्श से ‘स्वर्ण’ सदैव और निखरता है, सरलजी का व्यक्तित्व रूपी स्वर्ण भी जीवन संघर्ष की इन लपटों में तपकर और अधिक दमका है। जीवन में संघर्ष की अनिवार्यता को स्वीकारते हुए कवि ने कहा है कि –

 

हर युग में ही जीवन संघर्ष जटिल होता

हर युग में ही अस्तित्व बचाना मुश्किल है,

हर युग में ही संघर्ष अवश्यंभावी है

संघर्ष बिना होता न कभी कुछ हासिल है। 6

 

सरलजी के काव्य में महत्व केवल शब्दार्थ या वाच्यार्थ का नहीं, महत्व है उन सुस्पष्ट भावार्थों और ध्वन्यार्थों का, जो राष्ट्रहित से जुड़े हैं और प्रत्येक भारतवासी के हृदय में युगों-युगों तक संघर्ष-चेतना की लहरें उत्पन्न करने में सक्षम हैं। कवि का मानना है कि संघर्ष भावना के खत्म हो जाने पर मनुष्य मृतक समान होगा –

 

संघर्ष-भावना का क्षय, यही पराजय है

वह जीवित, तो जय का हर अवसर जिंदा है,

संघर्ष-भावना जिसकी बिल्कुल मर जाए

वह मरा हुआ है, जीवन से शर्मिन्दा है। 7

 

महान क्रान्तिकारी पंडित परमानंद द्वारा ‘जीवित शहीद’ कहे जानेवाले श्रद्धेय श्रीकृष्ण सरल की कविता पस्त-हिम्मती व्यक्ति की कविता नहीं है, उनकी कविताओं में क्रान्ति और संघर्ष की अग्नि दहकती है, जिसकी आँच इन पंक्तियों से अनुभव की जा सकती है –

 मैं फूल नहीं काँटे अनियारे लिखता हूँ,

मैं लिखता हूँ मँझधार, भँवर, तूफान प्रबल

मैं नहीं कभी निश्चेष्ट किनारे लिखता हूँ। 8

 

प्रोफेसर श्रीकृष्ण सरल के काव्य की वर्तमान संदर्भ में प्रासंगिकता

 

सरलजी आजीवन संघर्ष-पथ के राही रहे। संघर्षों की धूप में झुलसते हुए ‘युग की साँसो को गरमाने’ वाली काव्य सर्जना करने वाले, इस विलक्षण रचनाकार का काव्य सामयिक संदर्भों में भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना रचना के समय था। समकालीन परिदृश्य पर दृष्टि डाली जाए तो चारों और भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, राजनेताओं के छलपूर्ण आचरण और कोरे आश्वासनों के मध्य जीते हिन्दुस्तानियों को आजादी एक छलावा लगती है।

 

धर्म, जाति, सम्प्रदाय आदि के नाम पर भारत की एकता को खण्डित करने का प्रयास आज भी निरंतर जारी है, यह बँटवारा कवि को स्वीकार नहीं है, उनके अनुसार – 

भारत-माता के कार्य हेतु क्या छुआछूत

हिन्दू-मुस्लिम सब उसके ही तो बच्चे हैं। 9

 

रिश्वतखोरी भ्रष्टाचार का मूल है और आज समाज में इसी का बोलबाला है, कवि ने ‘रिश्वत’ पर व्यंग्य करते हुए कहा है कि –

 

है बहन खुशामद की, वह रिश्वत रानी

उसकी ताकत है दुनिया में ला-सानी। 10

 

भ्रष्ट राजनीति के चलते स्वशासन के नाम पर जनता जिस प्रकार छली जा रही है, वह अंग्रेजों द्वारा किए गये छल से कुछ कम नहीं है, क्योंकि – 

होता शिकार जो है  छल का,  वह रोता है

वह है, जो अपनी रोटी रोकर खाता है,

आता छलिया को स्वाद आँसुओं में उसके

वह अपनी रोटी उनसे धोकर खाता है। 11

 

राजनेताओं के मिथ्या आश्वासनों के संदर्भ में कवि का कहना है कि -

 

आश्वासन है वह  चैक  न जो भुनता है,

पाने वाला क्या पाता ? सिर धुनता है। 12

 

पाँच वर्ष में एक बार सिर्फ चुनाव के समय जनता की सुध लेनेवाले नेताओं से मिले, इन आश्वासनों ने भारतीय जनता के हृदय में सदैव यह प्रश्न उठाया है कि – 

जो आश्वासन मिलते,  क्या चूमें - चाटें,

उनके बल पर हम कैसे दुर्दिन काटें। 13

 

कवि हृदय व्यथित है जिस प्रकार भारत माँ के टुकड़े-टुकड़े करने की साजिश रची गई, समकालीन परिदृश्य में भी कुछ इसी प्रकार की लूट-खसोट मची हुई है। इस संदर्भ में कवि की पीड़ा इन शब्दों में अभिव्यक्त हुई है –

 

है मची आज क्यों केवल लूट-खसोट यहाँ

क्यों की जाती भारत-माँ की खींचातानी,

कर रहे गिद्ध-कौए हैं नोंच-खरोंच विकट

माँ के टुकड़े-टुकड़े करने की है ठानी। 14

 

सरलजी की लेखनी ने, क्रान्तिकारियों की स्मृति को चिर जीवंतता प्रदान करने के साथ, राष्ट्र के विकास हेतु ‘शिक्षा का महत्व’, ‘साम्प्रदायिक सद्भाव’, ‘आपसी समवाय’, ‘नारी की महत्ता’, ‘युवा-शक्ति’ आदि विषयों को भी अपने काव्य का विषय बनाया। ‘शिक्षा के महत्व’ को प्रकट करती यह पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं –

 

शिक्षित होता जब  व्यक्ति, राष्ट्र शिक्षित होता

शिक्षा का सामाजिक स्वरूप भी होता है। 15

 खेतों-खलिहानों में दिखता है श्रम, 

देशों की तकदीरें लिखता है श्रम। 16

 

भारत की उन्नति के आकांक्षी कवि पुरानी लीक को छोड़कर नये सुन्दर वर्तमान को गढ़ने और युग को नयी दिशा में मोड़ने का आग्रह करते हैं। अपने लेखन से शहीदों का ऋण उतारनेवाले श्रीकृष्ण सरल सच्चे अर्थों में कविकर्म का निर्वाह करते हुए, अपने काव्य-लोक में एक सचेतक की भाँति जन-जन में राष्ट्रप्रेम एवं संघर्ष चेतना जाग्रत करनेवाले पुरोधा के रूप में व्याप्त रहते हैं। कवि जन-शक्ति के महत्व को जानते हैं, इन पंक्तियों में इसी महत्व को दर्शाया गया है –

 

जन-शक्ति प्रबल होती है और अकूती

उसकी ही बजती है हर युग में तूती,

जन-शक्ति कवच है, वह तलवार निराली

जाता है उसका वार न कोई खाली। 17

 

आजीवन शहीदों का श्राद्ध करनेवाले श्रीकृष्ण सरल के काव्य-सृजनकर्म का उद्देश्य, कदापि लोकेषणा अथवा वित्तेषणा (यशलिप्सा अथवा धनलिप्सा) नहीं रहा, वरन् राष्ट्र के एक सच्चे सपूत एवं क्रान्ति-चेतना के वाहक के रूप में कर्तव्यपरायणता का निर्वाह करनेवाले अनवरत संघर्षशील, अपराजेय योद्धा की भाँति रहा है। सरलजी ने लेखनी की शक्ति को युगनिर्माता माना है, साथ ही कवियों और साहित्यकारों को इस दायित्व की गंभीरता समझाते हुए कहा है कि –

 

सामर्थ्य लेखनी का यदि बिक जाएगा, तो

किस तरह राष्ट्र फिर संकट में टिक पाएगा। 18

 

कविवर शिवमंगलसिंह सुमन की यह पंक्तियाँ सरलजी के क्रान्तिधर्मी व्यक्तित्व के संदर्भ में सटीक लगती हैं –


एक अंकुर फूट कर बोला कि मैं हारा नहीं हूँ

एक उल्का पिण्ड हूँ, तारा नहीं हूँ,

मृत्यु पर जीवन विजय उद्घोष करता

मैं अमर ललकार हूँ चारा नहीं हूँ। 19

 

सुप्रसिद्ध आशुकवि डॉ. उर्मिलेश ने इन पंक्तियों से राष्ट्रीय लेखन के प्रति सरलजी के समर्पण को उकेरा है –


तुम    रहे  अभावों   में लेकिन

भावों   को  कभी  नहीं बेचा,

मुस्कानों   के  बदले  मन के

घावों को कभी नहीं बेचा। 20

 

 
Pic Dr Annapurna Sisodia

डॉ. अन्नपूर्णा सिसोदिया

कवयित्री एवं साहित्यकार, मध्यप्रदेश

पी-एच.डी. हिन्दी साहित्य

विश्व हिन्दी सम्मेलन मॉरीशस-2018 में भागीदारी

अनेक राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों में सहभागिता

केन्द्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड ( सेंसर बोर्ड ) की पूर्व सदस्य

काव्य संग्रह ' औरत बुद्ध नहीं होती ' के लिए मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी पुरस्कार-2019

 

विशेष सूचना –

प्रस्तुत ब्लॉग-शृंखला में प्रकाशित आलेखों अथवा रचनाओं में अभिव्यक्त विचार लेखक के निजी हैं । उसके लिए वे स्वयं उत्तरदायी हैं । संपादक और प्रकाशक उससे सहमत हों, यह आवश्यक नहीं है । लेखक किसी भी प्रकार के शैक्षणिक कदाचार के लिए पूरी तरह स्वयं जिम्मेदार हैं ।

प्रस्तुत ब्लॉग-शृंखला में प्रकाशित आलेख अथवा रचना का कोई भी हिस्सा, किसी भी स्वरूप में अथवा माध्यम में पुनः प्रकाशित अथवा संग्रहित करने हेतु, लेखक अथवा प्रकाशक से लिखित में पूर्वानुमति लेना बंधनकारक है ।

 

संदर्भ :- 1.क्रान्ति-गंगा; श्रीकृष्ण सरल, पृ़95, 2.वही; पृ92, 3.वही; पृ112, 4.वही; पृ126, 5.वही; पृ128, 6.कवि श्रीकृष्ण सरल की स्फुट रचनाओं का संकलन; पृ41, 7.वही, 8.वही; पृ4, 9.क्रान्ति-गंगा; श्रीकृष्ण सरल, पृ128, 10.वही, 11.वही; पृ149, 12.वही; पृ115, 13.वही, 14.वही; पृ148, 15.कवि श्रीकृष्ण सरल की स्फुट रचनाओं का संकलन; पृ9, 16.वही; पृ18, 17.क्रान्ति-गंगा ;श्रीकृष्ण सरल, पृ़114, 18. कवि श्रीकृष्ण सरल की स्फुट रचनाओं का संकलन; पृ17, 19, जल रहे हैं दीप, जलती है जवानी; शिवमंगलसिंह सुमन, 20. 12 मार्च 1991 को नई दिल्ली से प्रकाशित स्मारिका; पृ़78

 

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