- आचार्य देवेन्द्र ' देव '
' शब्द-साधक ' ब्लॉग श्रृंखला का प्रथम-पुष्प, आचार्य देवेंद्र देव का एक गीत साभार प्रस्तुत है ।
राष्ट्रकवि श्रीकृष्ण सरल के जुझारू रचनाधर्मी जीवन पर आधारित
महाकाव्य ' शंख महाकाल का '
आचार्य देव की साहित्यिक सृजनधर्मिता का ज्वलंत उदाहरण है !
इस स्तुत्य प्रयास को उक्त पुस्तक क्रय कर यशस्वी कवि आचार्य 'देव' को प्रोत्साहित करनेे के इच्छुक सहृदय पाठक उनसे 9412870495 अथवा 9537060794 पर सम्पर्क कर सकते हैं
यद्यपि सामन्तों, श्रीमन्तों की ड्यौढ़ी पर नहीं दिखेंगे।
पर, सच मानें, हम ही हैं वे, जो कल का इतिहास लिखेंगे।
हम विरंचि के अधिकृत प्रतिनिधि, लौह लाड़ले महाकाल के।
नहीं कभी जो मुरझाते, वे पत्ते हैं हम, हरी डाल के।
वरदानों के अक्षय वट हैं, बोधिसत्व के बोधिवृक्ष हम,
अंगुलिमालों ने भी देखे हैं अपने करतब कमाल के।
वाक्केलि करने वाले ये, जितनी चाहे, उतनी कर लें
लेकिन अपने सम्मुख ये सब कहांँ टिके हैं, कहाँ टिकेंगे?
हमने सदा कबीरा बनकर पाखण्डों की ढोलक फोड़ी।
और, निराला बनकर दम्भों, अहंकरों की साख झिंझोड़ी।
तुलसीचौरा बनकर हमने चौराहों पर बाँटे सौरभ,
वाल्मीकि बन तप: त्याग की सन्निधि सिंहासन से जोड़ी।
हमको सुविधायित सौख्यों की धमकी मत दें, देने वाले,
संघर्षों की दहकों में हम खूब सिके हैं, और सिकेंगे।
आदिकाल से शुभताओं के, शिवताओं के हम आराधक।
गीता-गायक-से, अधर्म के उलटे-सीधे पर के बाधक।
जिनके पीछे-पीछे चलते अर्थ सैकड़ों हाथ बांँधकर,
हम हैं उन शब्दों के सर्जक, रक्षक, सैनिक, सेवक, साधक।
भौतिक अर्थों के किन्नरपति चाहे जितना ज़ोर लगा लें,
हम सिद्धान्तों के अनुयायी नहीं बिके हैं, नहीं बिकेंगे।
भ्रमित जनों को दिशा दिखाते हैं पवित्र आचरण हमारे।
'शठे शाठ्यम्' पर उतरे अब, निश्छल अन्त: करण हमारे।
राम-कथा, भागवत सरीखे हम बाँचे जाएंँगे घर-घर,
बन निरुक्त जीवन की गुत्थी खोलेंगे व्याकरण हमारे।
हम तो घर-घर, आँगन-आंँगन महकेंगे पर, आलोचकगण,
खोज न पाएंँगी शताब्दियांँ, जाकर इतनी दूर फिकेंगे।

आचार्य देवेन्द्र देव
कवि एवं साहित्यकार, बरेली
अ.भा. साहित्य सह संयोजक, संस्कार भारती
पन्द्रह (अब इक्कीस) महाकाव्यों के रचनाकार
विश्व हिन्दी सम्मेलन भोपाल और मारीशस में प्रतिभाग
अमेरिकन बायोग्रैफिकल इंस्टीट्यूट के मैन आफ द इयर १९९८
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